October 15, 2025

लकीरें: एक कविता

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डॉ. कमल के. प्यासा

डॉ. कमल के. प्यासा, मण्डी, हिमाचल प्रदेश

खड़ी पड़ी,
आड़ी तिरछी,
टेढ़ी मेढ़ी,
आधी अधूरी,
इधर उधर,
यहां वहां,
कहीं भी हों लकीरें।
लकीरें,
बांटती हैं,
काटती हैं,
तोड़ती (मिटाती),
फोड़ती (गंवाती),
दरारें डालती हैं!

लकीरें
कलम की,
तलवार की,
नफरत की,
अभिमान की,
दिलों में,
रिश्तों में,
अपनों में,
अपनों से,
खलल डालती है!

लकीरें,
डरावनी काली,
धधकती लाल ज्वाला वाली,
घुम सुम गूंगी सफेद वाली,
गहर गंभीर गहरी गहरी,
नाटी हल्की छोटी छोटी,
सभी तरह की ये लकीरें,
ललकारती देखी गई हैं!

लकीरें,
बांटती हैं मुल्क,
करती है टुकड़े टुकड़े,
लड़ाती है अपनों को अपनों से,
बढ़ाती है वैमनस्य,
असंतुलन पैदा कर,
नफरत फैलती है ये!

लकीरें,
खींचना,
डालना,
लकीरना,
रोक दो,
क्योंकि,
बड़ी ही भयानक होती हैं,
भयानक देखी गई हैं,
(परिणाम भी शून्य देती हैं)
ये सभी तरह की,
रंग रूप आकार प्रकार वाली,
उकेरी गई लकीरों के!

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