शनि जयंती – डॉ कमल के प्यासा

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डॉ कमल के प्यासा, मण्डी, हिमाचल प्रदेश

देव शनि, जिनका जन्म माता छाया व पिता देव सूर्य के यहां ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन हुआ था, उस समय इनका रंग कला ही था। सूर्य देव के काले होने के बारे में बताया जाता है कि जिस समय शनि अपनी माता छाया के गर्भ में ही थे तो माता छाया ने, अपने पति सूर्य देव के अत्यधिक तेज के कारण, अपनी आँखें मूंद रखी थीं। माता द्वारा आंखों के बंद रखने के कारण ही शनि देव काला रंग लिए ही पैदा हुवे थे।एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार बताया जाता है कि देव शनि के संबंध अपने पिता सूर्य देव से ठीक नहीं थे जिस कारण ये अपने पिता से हमेशा रूष्ट ही रहते थे और मन में कटुता व शत्रुता का भाव रखते थे।

इस कटुता के पीछे देव शनि की माता छाया को पिता (देव सूर्य) द्वारा प्रताड़ित करना बताया जाता है। कहते हैं देव सूर्य को अपनी पत्नी छाया पर शक था कि शनि उसका पुत्र नहीं, इसी शक के आधार पर सूर्य देव ने छाया को प्रताड़ित किया था, जिससे शनि आने पिता से नाराज रहने लगा था, जब कि सूर्य देव ने अपनी गलती का अहसास हो जाने पर अपनी पत्नी से क्षमा भी मांग ली थी।लेकिन देव शनि के मन में, मां का प्रतिशोध लेने की भावना हमेशा हमेशा के लिए बन गई थी।परिणाम स्वरूप इसी संबंध में एक अन्य पौराणिक कथा में देव शनि द्वारा भगवान शिव की घोर तपस्या की जानकारी मिलती है।

भगवान शिव जब शनि देव की तपस्या से प्रसन्न हुए तो उन्होंने शनि देव को वरदान मांगने के लिए कहा।तब शनि देव ने अपने पिता से माता की प्रताड़ना का बदला लेने के लिए भगवान शिव से, देव सूर्य (अपने पिता) से भी अधिक शक्तिशाली होने का वरदान मांग लिया था। भगवान शिव ने भी तभी से देव शनि को सभी ग्रहों में सबसे शक्तिशाली व न्यायशील देवता बना दिया था जो कि सभी को उनके कर्मों के अनुसार ही फल देते हैं।शनि देव से संबंधित अन्य कथाओं में भगवान श्री कृष्ण के भक्त वाली कथा, देव शनि द्वारा रूष्ट हो जाने पर अपनी पत्नी को शाप देने वाली कथा, जिसमें पत्नी को कह दिया था कि वह जिसे देख कर उठे गी वह नष्ट हो जाए गा। कुछ एक कथाओं में देव शनि को हनुमान के गुरु के रूप में, सूर्य देव के पुत्र रूप में व भगवान शिव का शिष्य के रूप में बताते हैं। देव शनि को ही कहीं कही भगवान श्री कृष्ण का अवतार भी बताया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में इन्हें न्याय का देवता माना गया है। और इन्हें शिव का परम भक्त कहा गया है। कई एक पौराणिक कथाओं में इन्हें भगवान शिव का अवतार भी बताया गया है। वहीं एक स्थान पर ऋषि पिप्पलाद के शाप के परिणाम स्वरूप इन्हें लंगड़ा भी कहा गया है।

देव शनि की प्रिय राशियों में शामिल हैं: मकर, कुंभ व तुला राशि। इनके पुत्र धन के देवता कुबेर, पुत्री तपस्विनी व पत्नी छाया के नाम से जानी जाती हैं। शनि जयंती में इनके पूजन से पहले स्नान आदि से निवृत हो कर, एक लकड़ी के पटड़े को अच्छी तरह धो कर साफ करें, इसके ऊपर काले रंग का कपड़ा बिछा लें। देव शनि की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवा कर पटड़े के काले कपड़े पर प्रतिष्ठित कर दें और व्रत लेने का संकल्प ले लें।प्रतिमा पर फूल मालों को चढ़ा कर, सरसों के तेल का दिया जला दें। इसके पश्चात पूजा पाठ में शनि चालीसा का पाठ करें। शनि देव के मंत्र में, ओम शं शनिश्चराय नमः का जाप करें। इस दिन पीपल वृक्ष की पूजा, परिक्रमा व जल अर्पण करना, गरीबों, विकलांगों, रोगियोंको दान दक्षिणा देना, काले कुत्ते, कौवे व गाय को भोजन देना शुभ समझा जाता है। और ऐसा करने से देव शनि प्रसन्न हो जाते हैं ।इसी दिन बजरंग बली हनुमान के पूजन को भी शुभ व लाभकारी बताया गया है।

शनि देव के प्रशाद में काले तिल, गुड, खिचड़ी व गुलाब जामुन का भोग बताया जाता है। दान में भी काले तिल, गुड, उड़द, सरसों का तेल व काले वस्त्र दिए जाते हैं। देव शनि हमेशा परनिंदा, किसी को अपमानित करना, बेवजह किसी को तंग करना ठीक नहीं समझते। अपने अधीन व्यक्ति से अनुचित लाभ उठाना, तामसिक भोजन करना, गाली या अप शब्द कहना, अभद्र व्यवहार करना या किसी बुराई चुगली करना आदि देव शनि को बिल्कुल भी पसंद नहीं, जो कोई इस तरह का व्यवहार करता है, वह शनि की दशा से बच नहीं पाता। ऐसी मान्यता है कि शनि दोष के कारण ही अस्थि, नाभि, स्नायु तंत्र व कफ आदि के लोग लग जाते हैं। शरीर, घुटनों व एड़ियों में दर्द भी होने लगता है।

यदि कहीं कुंडली में शनि दोष या साढ़ सती हो तो सिर दर्द भी रह सकता है। शनि देव की पूजा हमेशा सूर्य उदय से पूर्व व सूर्य अस्त के बाद ही करनी चाहिए।महिलाओं को शनि मंदिर में जाने से बचना ही चाहिए, क्योंकि शनि मंदिर में तांत्रिक क्रियाएं आदि की जाती हैं जिससे नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव रहता है। यदि कोई महिला वहां जाती भी हैं तो शनि देव की प्रतिमा को कभी भी उसे छूना नहीं चाहिए।

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