रणजोध सिंह
रमेश समय से पंद्रह मिनट पहले ही बस स्टॉप पहुंच गया था ताकि बस में उसे बैठने का स्थान मिल सके| यद्यपि उसने सबसे पहले बस में प्रवेश किया मगर फिर भी उसे बैठने के लिए कोई स्थान न मिला, क्योंकि बस पहले से ही भरी हुई थी| उसे बहुत निराशा हुई क्योंकि अब उसे दस किलोमीटर का सफर खड़े-खड़े ही तय करना था| वह मन ही मन अपनी किस्मत को कोसने लगा| उस पर बस परिचालक कभी सवारियों को आगे जाने के लिए कहता तो कभी पीछे जाने के लिए| उसके चेहरे पर निराशा, गुस्से तथा चिंता के भाव स्पष्ट पड़े जा सकते थे| मगर जून महीने की गर्मी के बाबजूद उसके पास बस में खड़े रहने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं था|
कुछ दिन बाद, न चाहते हुए भी रमेश बस स्टॉप पहुंचने में लेट हो गया| बस पर चढ़ने वाली यात्रियों की लाइन में वह सबसे पीछे खड़ा था| उसने मन ही मन सोच लिया कि आज तो उसे खड़े होकर ही सफर करना है| और हुआ भी यही| बस पहले से ही खचाखच भरी हुई थी, मगर जैसे ही उसने बस में प्रवेश किया, बस परिचालक ने रमेश से कहा, “आप मेरी सीट पर बैठ जाइए मुझे टिकटे काटनी हैं|” अँधा क्या चाहे, दो आँखें, रमेश परिचालक का धन्यवाद करते हुए तुरंत सीट पर बैठ गया| एकाएक उसे अपनी किस्मत पर गर्व होने लगा जबकि अन्य यात्रियों को उसकी किस्मत से ईर्ष्या होने लगी थी|
बस अभी मुश्किल से एक किलोमीटर चली होगी, तभी अगले बस स्टॉप पर एक महिला हांफ़ते हुए अपने छोटे से बच्चे को गोद में लिए बस में चढ़ी| किसी भी व्यक्ति ने उस महिला को सीट देने की उदारता नहीं दिखाई| परंतु उस दिन न जाने रमेश को क्या हुआ, वह अपनी सीट से उठा और उस महिला को वहां बिठा दिया और स्वयं खड़े होकर यात्रा करने लगा|
मगर आज उसकी चेहरे पर चिंता और निराशा के स्थान पर एक असीम प्रसन्नता का सुखद सुकून झलक रहा था।