सिखों के नौवें गुरु जिनका बचपन का नाम त्याग मल था का जन्म पंजाब के सोढ़ी खत्री परिवार में ,1अप्रैल 1921 को अमृतसर में माता नानकी व पिता हरगोविंद सिंह जी के यहां हुआ था।बालक त्याग मल बचपन से ही बड़ा गहर गंभीर ,विचारशील,उदार चित व निडर प्रवृति का मालिक था।बालक के इन्हीं हाव भाव को देखते हुवे पिता गुरु हरगोविंद सिंह ने अपनी विशेष देख रेख में बेटे को गुरु वाणी,धर्म शास्त्रों के अध्ययन में वेद ,उपनिषद व पुराणों की शिक्षा के साथ ही साथ अस्त्रशस्त्रों के प्रयोग में तीरंदाजी व घुड़सवारी प्रशिक्षण का प्रबंध करवा रखा था।
इस तरह पिता की देख रेख में बालक एक अच्छा घुड़सवार ,तीरंदाज व तलवार बाज बन गया था।एक बार करतार पुर की लड़ाई से जब गुरु हरगोविंद अपने बेटे के साथ किरतपुर की ओर आ रहे थे तो फगवाड़ा के समीप पलाई गांव में ,पीछे से मुगल सैनिकों ने इन पर हमला कर दिया ,लेकिन त्याग मल ने बड़ी ही बहादुरी व अपनी तलवार बाजी से दुश्मन की न करवा दी थी। उसी लड़ाई के पश्चात गुरु हरगोविंद जी ने बालक त्याग मल को तेग बहादुर का नाम दे दिया था।तेग बहादुर का अर्थ भी तो तलवार का माहिर ही होता है।
तेग बहादुर में कुछ अपनी ही विशेषताएं भी थीं जो कि आम देखने सुनने में नहीं मिलती ,अर्थात उसमें अस्त्र और शास्त्र,संघर्ष और वैराग्य,लौकिक और आलौकिक,राजनीति और कूटनीति,संग्रह और त्याग आदि के गुण देखे जा सकते थे। उसके इन सभी गुणों के फलस्वरूप ही तो ,3 फरवरी 1632 को जालंधर के निकट करतारपुर की रहने वाली गुजरी नामक लड़की से उसकी शादी करा दी गई।वर्ष 1640 में समस्त परिवार अर्थात माता नानकी,पिता गुरु हरगोविंद व तेग बहादुर अमृतसर के नजदीकी अपने पैतृक गांव बकाला आ गए। फिर वर्ष 1665 में गुरु हरकिशन जी के परलोक सिधारने के पश्चात 4 मार्च को 9वें गुरु के रूप में गुरु तेग बहादुर जी को जब गद्दी सौंपी गई तो ये अमृतसर आ गए।गुरु तेग बहादुर धर्म की रक्षा करना ही नहीं बल्कि वे तो धार्मिक स्वतंत्रता भी चाहते थे,किसी पर भी किसी तरह का प्रतिबंध मुगल शासकों की तरह नहीं थोपना चाहते थे और न ही किसी के दबाव में रहना चाहते थे।इसी कारण मुगल शासक औरंगजेब हमेशा सिखों व गुरु तेग बहादुर से नफरत किया करता था।
फिर भी गुरु तेग बहादुर जी अपनी समाज सेवा, ईश्वरीय निष्ठा,समता,करुणा,प्रेम,सहानुभूति,त्याग और बलिदान की भावना से धर्म का प्रचार करते हुवे आनंदपुर से किरतपुर,रोपड़,सैफ़ाबाद से होते हुवे खिआला(खदल)व आगे कुरुक्षेत्र पहुंच गए।यह जनसेवा और प्रचार आगे से आगे चलता रहा और गुरु तेग बहादुर जी मथुरा,आगरा,प्रयाग,बनारस,पटना तथा असम तक जा पहुंचे।इस तरह गुरु तेग बहादुर जी के आध्यात्मिक व धार्मिक प्रचार के साथ ही साथ सामाजिक सुधारों , अंधविश्वासों और रूढ़ियों की आलोचना भी साथ में चलती रही थी।जन हित के कार्यों के अंतर्गत गुरु जी द्वारा कई स्थानों पर धर्मशालाएं, कुवें,बावड़ियां और रास्तों का निर्माण भी करवाया गया। आनंदपुर नाम का कस्बा ,(बिलासपुर की रानी चंपा देवी से पहाड़ वाली जमीन खरीद कर) बसाया गया ।यहीं स्थान आज, आनंद पुर साहिब नाम के प्रसिद्ध गुरुद्वारे के कारण सिखों का पवित्र धार्मिक स्थल जाना जाता है।
वर्ष 1666 को पटना में ही गुरु तेग बहादुर के बेटे गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था, जो कि सिखों के 10वें गुरु बने थे। आध्यात्मिक प्रचार प्रसार के साथ वर्ष 1672 में गुरु जी द्वारा मालवा क्षेत्र की यात्रा की गई और हिन्दू धर्म व शास्त्रों के प्रचार के साथ अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों से दूरी बनाए रखने को भी कहते रहे। उधर कश्मीर में मुगल शासक औरंगज़ेब के कारण कश्मीरी पंडित बहुत तंग थे क्योंकि जोर जबरदस्ती से धर्म परिवर्तन किया जा रहा था और मंदिर तोड़े जा रहे थे।इसी लिए कुछ कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर जी के पास सहायता के लिए पहुंचे थे।जिस पर गुरु तेग बहादुर ने उनको आश्वाशन के देते हुवे ,औरंगजेब से इस संबंध में मिलने की बात की थी। जिसकी खबर औरंगजेब तक पहुंच गई और वह किसी न किसी बहाने गुरु तेग बहादुर को सबक सिखाने के बारे सोचने लगा था।
इधर गुरु तेग बहादुर पूरे विश्वाश के साथ बादशाह औरंगजेब से मिलने दिल्ली के लिए निकल पड़े , ताकि बात करके औरंगजेब को मना ले,लेकिन औरंगजेब की साजिश के फलस्वरूप गुरु जी व उनके साथियों को रास्ते में ही मुगल सैनिकों ने पकड़ लिया और फिर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। कुछ दिनों के पश्चात बिना किसी वार्तालाप व पूछ ताछ के ही उन्हें मुसलमान बनने या चमत्कार दिखाने को कहा गया।यदि ऐसा नहीं करये तो मारने के लिए तैयार रहने को कहा गया। गुरु जी और उनके साथी अपने धर्म की प्रति अडिग रहे,किसी ने भी अपना धर्म बदल कर मुसलमान बनना स्वीकार नहीं किया जिसके फलस्वरूप गुरु जी के सामने ही ,उनके तीन साथियों को (जल्लाद ने बड़ी ही निर्दयता से )मार दिया ।
इसके साथ ही गुरु तेग बहादुर जी को भी धर्म परिवर्तन के लिए कई तरह के प्रलोभन दिए गए,डराया दमकाया गया लेकिन गुरु जी टस से मस नहीं हुवे ।आखिर 11 नवंबर ,1675 के दिन गुरु जी के विरुद्ध काजी द्वारा फतवा पढ़ा गया और जल्लाद ने उसी वक्त गुरु जी का सिर धड़ से अलग कर दिया।गुरु जी ने बड़े ही शांत हो कर जपजी का पाठ किया और उफ तक नहीं की और अपने धर्म की खातिर शहीद हो गए।चांदनी चौक का शीश गंज गुरुद्वारा साहिब गुरु जी की उस निर्मम और करूर हत्या का प्रत्यक्ष गवाह है। और दूसरी याद गुरुद्वारा साहिब रकाब गंज है जहां गुरु जी के एक सेवक द्वारा उनका दाह संस्कार किया गया था।
मुगल शासक औरंगजेब के इस घोर अत्याचार को छिपने के लिए कई एक फारसी के पालतू मुगल लेखकों द्वारा गुरु तेग बहादुर की फांसी को उचित ठहरते हुवे आरोप में लिखा है कि गुरु तेग बहादुर लूट पाट करतेऔर पैसों की उगाही करते थे ,इसीलिए उनको यह सजा दी गई, लेकिन औरंगजेब की क्रूरता और अत्याचार किस से छिपे हैं,जिस ने अपने बाप तक को जेल में डाल दिया था ,भला ऐसे खूंखार आततायी धर्मविरोधी व अत्याचारी शासक पर कौन यकीन कर सकता है।अपने को साफ सुथरा आदर्श वादी दिखाने व उसके प्रचार के लिए उन्होंने(औरंगजेब जैसे अत्याचारी शासकों) भाट तो पाल ही रखे होते हैं ,जो उल जलूल बख़वास लिखने से नहीं चूकते। लेकिन वास्तविकता कब तक छिपी रह सकती है। निर्दयता आखिर प्रकट हो ही जाती है।
गुरु तेग बहादुर एक निडर योद्धा होने के साथ ही साथ सिद्धांतवादी ,आध्यात्मिक विद्वान व पहुंचे हुवे सूफी कवि भी थे। उनकी वाणी में रचित 15 राग व 116 शब्द गुरु ग्रन्थ साहिब में आज भी आदर से पढ़े जाते हैं।अपने आध्यात्मिक सिद्धांतों , धर्म संस्कृति की रक्षा व सामाजिक मान्यताओं के लिए मर मिटने वाले बलिदानी गुरु को इसी लिए तो ,जहां त्याग मल से तेग बहादुर के नाम से जाना जाता था,वहीं आज उन्हें नौवें गुरु,नौवें नानक,सृष्टि दी चादर, धरम दी चादर व हिंद दी चादर के नाम से भी जाना जाता है। ऐसे शहीद,वीर,बलिदानी गुरु को मेरा शत शत नमन।