कीकली चैरिटेबल ट्रस्ट दवारा गुप्तेश्वर नाथ उपाध्याय के उपन्यास “गंतव्य” का विशेष लोकार्पण और चर्चा कार्यक्रम का आयोजन शिमला में 28 अक्तूबर को किया गया । इस आयोजन में भाषा एवं संस्कृति विभाग के निदेशक डॉ पंकज ललित ने मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया, जबकि अध्यक्षता के आर भारती ने की । उन्होंने उपन्यास “गंतव्य” की महत्वपूर्ण बातें सांझा की और बताया की इस उपन्यास के माध्यम से समाज में नए दिशाओं की ओर बढ़ने का मार्ग दिखाया गया है ।
इस अद्वितीय कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में डॉ सत्यनारायण स्नेही, आत्मा रंजन और युवा पाठक श्रुति ने अपनी परीचर्चा से सभी को प्रेरित किया । उन्होंने उपन्यास “गंतव्य” के अंशों को सुनाया और इसकी महत्वपूर्ण बातें बताई । इस महत्वपूर्ण आयोजन के माध्यम से शिक्षा, बेरोजगारी, और साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई और यह स्पष्ट हुआ कि शिक्षा केवल ज्ञान नहीं प्राप्त कराने के लिए होती है, बल्कि यह युवाओं को उनके पेशेवर जीवन में सफलता पाने के लिए भी तैयार करनी चाहिए । उपस्थित अन्य अतिथियों में श्रीयुत श्रीनिवास जोशी, सुदर्शन वशिष्ठ, भारती कुठियाला, डॉ. स्नेही, कुलराजीव पंत सहित कई अन्य लोग शामिल थे ।
पुस्तक “गंतव्य” की लोकार्पण समय 2.00 से 3.30 pm के बीच हुई, और इस कार्यक्रम का मंच संचालन दिनेश शर्मा ने किया । इसके बाद, कविता पाठ कार्यक्रम 3.30 से 5.00 pm के बीच आयोजित किया गया, और इस कार्यक्रम का मंच संचालन विचलित अजय ने किया । कविता पाठ में शामिल हुए कुछ नाम, डॉ स्नेही, भर्ती कुठिआला, सुमित राज, गुलपाल, सीताराम शर्मा, समृधि, श्रुति, कुलराजीव पंत, और अन्य कवी ।
इस पुस्तक और काव्य पाठ कार्यक्रम के माध्यम से कीकली चैरिटेबल ट्रस्ट ने गुप्तेश्वर नाथ उपाध्याय की पुस्तक “गंतव्य” को समर्पित किया और लोगों को इसके महत्वपूर्ण संदेशों के प्रति जागरूक किया । इस सफल आयोजन ने साहित्य और शिक्षा के महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंतव्य के माध्यम से गहरी चर्चा की, और शिमला के साहित्य प्रेमियों को एक मंच पर ला कर आपसी विचार विनिमय करने का अवसर प्रदान किया । यह कार्यक्रम साहित्यिक और कला क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम है ।
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उपन्यास “गंतव्य” – शिक्षा और बेरोजगारी के बीच की गहरी चर्चा
देश के कई करोड़ शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में एक अंक और जुड़ गया । मैं एम. ए. करके बेरोजगार था, इस बात की चर्चा मेरे गाँव आने के कुछ ही महीनों के बाद अब गाँव के दो-चार लोगों की जमात में होने लगी थी, चाहे वह हाट-बाजार हो या चाय-पान की दुकान हो । उन सबकी नजर में मैं नम्बर वन मूर्ख था । कोई कहता, “त्रिभुवन पण्डित का बेटवा मिथिलेसरा अपनी पढ़ाई लिखाई में माँ-बाप का पैसा बर्बाद किया और अब जब कुछ कमाने का समय आया तो हाथ-पैर तोड़कर घर बैठ गया । काम भी तो नहीं होता उससे ।” तो कोई दूसरा काफी चिंतित मुद्रा में कहता, तुम ठीक कहते हो भाई । बच्चों को ज्यादा पढ़ाना व्यर्थ है । पढ़-लिखकर लड़के मूर्ख और बेकार हो जाते हैं ।” गाँव का कोई व्यक्ति अगर मुझसे मिलता तो वह मेरा और कोई समाचार पूछे या न पूछे मेरी नौकरी के समाचार जरूर पूछता । इसलिए नहीं कि उसे मेरी नौकरी को लेकर काफी चिंता होती, बल्कि इसलिए कि वह यह जता देना चाहता कि मैं अव्वल दर्जे का मूर्ख हूँ । उस दिन मैं गाँव के अपने एक मित्र वीरेन्द्र के साथ कहीं जा रहा था कि चरित्तर चौबे ने, जो चाय की दुकान में बैठे चाय पी रहे थे, हम दोनों को बुला लिया ।
आगे क्या होता है.. उसके लिए पुस्तक पढ़िए ।