उमा ठाकुर, शिमला

अनमोल रिश्तों में सिमटी जीवन चक्र में, झरने सी बहती
जज़्बातों के सैलाब से उभरकर, परिपक्व होती औरत ।
सहेजती बिना शर्त रिश्ते निभाती,
पत्थर तोड़ती औरत की काँच सी चूड़ियों सी मजबूत,
माँ-पत्नी-बेटी बन, दायित्व निभाती, परिवार की ढाल है औरत ।
हाथों की मेहंदी का रंग, चूड़ियों की खनक सोलह शृंगार,
मात्र गहना नहीं, सबल है उसके वजूद का,
मजबूत इरादों का, सशक्तिकरण का ।
हर हालात से लड़ती,
करवा चौथ की छुट्टी पर भी मिट्टी में खेलते बच्चों की,
शाम की भूख की चिंता में, भूखी प्यासी तप्ति धूप में,
खूबसूरत कामगार औरत ।
हालात सबके अलग, मगर दुआ में शामिल चाह बस,
पति की सलामती को निहारती, आईने में यूंही,
खुद से खुद की तलाश में, देहलीज़ बन जाती है औरत ।
करवा चौथ को मात्र दिखावा मानती,
चुनिन्दा संकीर्ण सोच के आगे, गाँव-शहर अमीरी-गरीबी से परे,
मिसाल कायम करती औरत ।
सरगी की थाली में रखे, करवे में छुपा पति का मान,
सास का प्यार सहेजती, चाँद को निहार,
चाँदनी सी इतराती औरत ।
नहीं चाह कुछ भी,
बस इतना कहना चाहे हर औरत,
कि दिखावा नहीं है करवा चौथ का व्रत,
है दिन, अपनापन जताने का,
तुम्हें एहसास दिलाने का,
कि जीवन में कितने खास हो तुम मेरे ।

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