दीप्ति सारस्वत प्रतिमा
ऐसा भी
नहीं ध्यान कि
माँ की सहेली कौन थी
ख़ास कोई एक दो तो थी ही नहीं
तीन , चार या पांच का तो सवाल ही नहीं उठता
जहां – जहां पिताजी का तबादला हुआ
वहीं आस पड़ोस में कुछ समय के लिए
महिलाओं से जान पहचान हो गई
उन्हीं से गुज़ारे लायक मित्रता
पल्लवित कर ली गई
बस इतनी कि तबादले का
अचानक आदेश आने पर
जगह और सहेलियों को छोड़ने का ग़म न हो
उनके मन की बातें कौन जानता होगा
क्या कोई रहस्य भी होंगे गहरे में
शंकाएं ; क्या – क्या , कैसी – कैसी रही होंगी
परेशानियां जो किसी खास को ही बताई जा सकें
ऐसी भी तो होंगी
बातें बनाते , चुगलियां खाते
उनको देखा ही नहीं कभी
पर निंदा का तो सवाल ही नहीं
नहीं मालूम सहेली बिन कैसे गुज़रती होगी ज़िन्दगी…
हाँ बहनें होती हैं ; कहने को बेटी भी
बन जाती है समय पकने पर दोस्त
किंतु इनमें कमी रहती है वही
बस वही एक रिश्ते से इतर अपनी पसंद से चुनी हुई
सहेली वाले फैक्टर की
गौर से देखा आज ही
उनके जीवन में उनकी खुद की
चुनी हुई कोई चीज़ शायद थी ही नहीं ।