डा. हिमेन्द्र बाली, इतिहासकार व साहित्यकार, नारकण्डा, शिमला 

सुकेत क्षेत्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि समृद्ध और वैभवपूर्ण रही है. सतलुज घाटी में स्थित सोमाकोठी गांव मण्डी के करसोग उपमण्डल के अंतर्गत एक ऐसा धरोहर गांव है जहां आर्य-अनार्य संघर्ष को रूपायित करती बूढ़ी दिवाली का पारम्परिक आयोजन होता है. सुकेत की  ऐतिहासिक व शैव, सिद्ध-नाथ परम्परा व नाग मत की त्रिवेणी चवासी गढ़ के अंतर्गत सोमाकोठी गांव सूमी देव अथवा सोमेश्वर महादेव की पावन भूमि है जहां देवता का सतलुज शिखर शैली का बहुपिरामिडीय मंदिर कलात्मक वैभव का प्रतिरूप है. यहीं वैशाख मास में पारम्परिक वीशू मेले का भव्य आयोजन किया जाता है.  वास्तव में वीशू (वैशाखी) उत्सव हिमाचल प्रदेश व पंजाब के कई क्षेत्रों में नये वर्ष के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है. वैशाख का यह पर्व कृषकों व जनजातीय समुदाय में हर्षोल्लास से मनाने की परम्परा है. इसे बसोआ के नाम से भी मनाया जाता है.

वैशाख संक्रांति से तीन दिन पूर्व लोग घरों में कोदरे के अनाज की रोटियां (टिक्कियां) बनाकर पत्तों से ढक लेते हैं. तीसरे दिन कोदरे की उन खट्टी रोटियों को परिवार के लोग बहिन-बेटियों को आमंत्रित कर गुड मिले पानी के साथ खाते हैं.  ऐसी ही मिलती-जुलती परम्परा सतलुज घाटी के अंतर्गत कोटगढ़ क्षेत्र में प्रचलित है. कोटगढ़ में वैशाख संक्रांति को बुरांश के फूल की पंखड़ियों को मूंज घास की रस्सी में पिरोकर मंदिरों व घरों में अलंकृत किया जाता है. बुरांस के फूल की पंखड़ियों को मूंज घास के साथ पिरोकर लगाने के पीछे यह धार्मिक भावना निहित है कि बगड़ (मूंज) घास को माता सीता के बालों का पर्याय माना जाता है. इसलिये घास को सीता से व्युत्पन्न सतरेवड़ी भी कहा जाता है.

संक्रांति के दिन घरों में आटे की लेई में गुड़ मिला पकवान (गुड़वी या गणाणी), फाण्ड और पटाण्डे जैसे पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं. ग्राम वधुएं देवता चतुर्मुख पर गेहूं व चावल को भूनकर  बनाई (मोड़ी) का वर्षण कर अपना सम्मान व सखाभाव ज्ञापित करतीं हैं.

किन्नौर में बीशू त्यौहार के अवसर पर नमकीन हलवा बनाया जाता है. इस दिन देवता का श्रृंगार होता है और रथ को गांव में चहुंओर घुमाया जाता है. रामपुर बुशहर क्षेत्र में बिशू अथवा ठिरशू को मनाने के पीछे महाभारत काल में पाण्डवों से जुड़ी मान्यता प्रचलित है. ऐसा माना जाता है कि द्वापर युग में वनवास के दौरान जिन जिन स्थानों पर पाण्डव रूके और जहां जहां उन्हे सुख व शांति मिली वहीं बिशू पर्व की परम्परा स्थापित हुई. परन्तु जहां जहां पाण्डवों को कष्ट सहने पड़े वहां ठिरशू मनाने की परम्परा स्थापित हुई. ठिरशू में लोग मुखौटे पहनकर लोगों का मनोरंजन करते हैं.

चूंकि वैशाख संक्रांति को सतलुज घाटी क्षेत्र में मुख्य “पर्वी” अर्थात् बड़ी संक्रांति माना जाता है. इस दिन देव मंदिरों में विशेष अनुष्ठान होते है. बुरांश के फूल व मूंज घास में बुरांश की गूंथकर लड़ियों को  मंदिर के द्वार और चहुंओर श्रृंगारित किया जाता है. इस दिन नवजात बच्चों के पहले केश मंदिरों में उतारे जाते हैं. मंदिरों व घरों में जंगल से कैल वृक्ष के स्तम्भ को लाकर अग्रभाग में गाड़कर स्थापित किया जाता है. इस स्तम्भ को पड़ैई कहा जाता है और पड़ैई के शीर्ष पर लुची-हलवा को बांधा जाता है. फिर बच्चे पड़ैई पर बांधे नैवेद्य को निकलने के लिये पड़ैई पर चढ़कर नैवेद्य का निकारकर बांटकर खाते हैं. पड़ैई की प्रतिष्ठा भी कई प्रकृति के प्रति अनुराग से ही सम्बंधित है. प्रकृति के सौंदर्य को घर आंगन में विस्तारित करने का उद्यम पड़ैई की स्थापना से जुड़ा है.

सुकेत के सोमाकोठी में बीशू  की परम्परा की तरह सतलुज घाटी के अन्य क्षेत्र कुल्लू के बाहरी सराज के दलाश, कुमारसैन के कोटीघाट, मधान ठकुराई के चदारा परगने, पूर्ववर्ती शांगरी ठकुराई की राजधानी बड़ागांव व कोटगढ़ क्षेत्र के लोशटा, बटाड़ी, डाडा (वीरगढ़), मैलन व भनाणा में भी  बीशू मेले आयोजित किये जाते हैं. बीशू मेले की परम्परा ऐसी है कि यह उत्सव स्थानीय देवताओं के देवालय में अथवा देवता के रथारूढ़ होने पर स्थान विशेष में मनाये जाते हैं. वास्तव में बीशू मेले में कई स्थानों पर आरम्भ के छ: दिनों तक मंदिर के थड़े पर बीशू गीत गाने की परम्परा है. ऐसी ही परम्परा शांगरी के बड़ागांव में प्रचलित है. बीशू का एक नाम सतलुज घाटी में ठिरशू भी है. ठिरशू में स्वांग व झांकियां रात्रि भर निकाली जाती हैं. ऐसी परम्परा शांगरी के बड़ागांव में प्रचलित है. यहां रात्रि के आरम्भ में हास्यास्पद स्वांग और ब्रह्ममुहूर्त में पौराणिक कथानक  हिरण्यकशिपु व नरसिंह भगवान के स्वांग अभिनीत किये जाते है.

सोमाकोठी में भी वैशाख संक्राति से अगामी आठ दिनों तक घर घर में बीशू गीतों का गायन होता है. बीशू गीतों की अंतर्वस्तु प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण व महिला के मायके जाने की व्यग्रता का मनमोहक चित्रण से सम्बंधित है:

वीरशू आया त्वारणे बाजी रो बाजी,
मेरे ता जाणा पेओके, बाजी रो बाजी,
पत्री वचारदे शाओरेया, बाजी रो बाजी,
पूछेया तू आपणे शाओरे, बाजी रो बाजी,
मेरे तो जाणा पेओके, बाजी रो बाजी,
पूछेआ तू आपणी सासुए, बाजी रो बाजी,
पटाण्डे ता पकान्दी सासुए, बाजी रो बाजी,
पत्री बचारते जेठीया, बाजी रो बाजी,
मेरे ता जाणा पेओके, बाजी रो बाजी… क्रमश:

इसी तरह वीशू गीतों में ऋतु गीतों का गायन शोभनीय बन पड़ता है:
नवीं नवीं रीत आई, नवीं फूला दे,
वसाखी रा महीना मुबारक होवे, चढ़ने आए,
नवीं नवीं रीत आई, नवीं फूला दे,
बसाखे चले आए बसंते फूल फूले,
नवीं नवीं रीत आई, नवीं फूला दे,
बसाखे चले आए बुराह फूल फूले…

इस तरह वैशाख संक्रांति से शुरू हुए वीशू मेले में पांचवें दिन सोमेश्वर महादेव, नाग सुन्दलु और देव दवाहड़ी रथारूढ़ होकर मंदिर से बाहर निकलते हैं. सोमाकोठी में वीशू उत्सव को ठिरशू व रिशू मेले के नाम से भी जाना जाता है. पांचवें, छठे व सांतवें दिन से ही ठिरशू मेले का विधिवति आयोजन  होता है. पूर्व में ठिरशू मेले में रात्रि को प्रहसनात्मक व पौराणिक झाकियां निकाली जाती थीं जिसके माध्यम से जहां लोगों का मनोरंजन तो होता था वहीं शिक्षाप्रद आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त होता है.

सोमाकोठी के सोमेश्वर देव चवासी गढ़ के प्रसिद्ध देव हैं. सोमेश्वर देवता का मंदिर व तीन मंजिली कोठी वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है. मंदिर में भरागस, दाया और दौहण नाम के द्वार पाल विराजित हैं. सभा मण्डप में श्रृंग ऋषि के पुत्र की काष्ठ प्रतिमा स्थापित है. गर्भगृह में शिवलिंग अवस्थित है. मंदिर परिसर में गाय-ग्वाल का मंदिर भी प्रतिष्ठित है. मंदिर में दैवीय चमत्कारों से सम्पृक्त जलकुण्ड है.
विशू के पर्व को हिमाचल में वैशाख मास के पहले पखवाड़े में मनाने की परम्परा है. परन्तु कहीं कहीं वीशू उत्सव ज्येष्ठ व आषाढ़ में भी आयोजित होते हैं. कई स्थानों पर वीशू मेले के अवसर पर स्वांगों का आयोजन होता आया है. ये स्वांग समाज में व्याप्त कुरीतियों पर कुठाराघात के साथ साथ मध्ययुगीन विभूतियों, लौकिक यथार्थ और पौराणिक घटनाओं के माध्यम से समाज को स्वस्थ संदेश देते हैं.

किन्नर प्रदेश में रिब्बा में राजा कंस की  पूजा का विधान है. यहां विशू वसंत के अभिनंदन का उत्सव है. सोमाकोठी में आयोजित ठिरशू मेले में गिरि-यमुना घाटी और शिमला जिले की सतलुज घाटी के कुछ क्षेत्रों  की भांति  महाभारतकालीन युद्ध नृत्य ठोडा का अभिनय  नहीं किया जाता. सुकेत क्षेत्र में ठोडा नृत्य की परम्परा नहीं है बल्कि माला नाटी नृत्य का अवश्य आयोजन होता है. बहरहाल ठिरशू अथवा बीशू उत्सव जहां नववर्ष के शुभागमन का स्वागत उत्सव है वहीं  ऋतुराज वसंत में सौंदर्य श्रृंगार का आनंदोत्सव भी है. यहां जब प्रकृति श्रृंगार करती है तो हिमालय पुत्रों का मानस प्रकृति और आराध्य देव समुदाय के स्वागत के लिये सहज ही तैयार हो उठता है. नि:संदेह वैशाख में सोमाकोठी व सतलुजघाटी क्षेत्र में मनाये जाने वाले बीशू उत्सव में यहां प्राचीन सांस्कृतिक परम्परायें आज भी देवास्था और प्रकृति के प्रति अनुराग से जुड़ीं हैं.

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