डॉ. कमल के. प्यासा
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कितने उजड़े
कितने बिखरे
कितने बेमौत मरे
नशे के चक्कर में।
फिर भी हैं नहीं शरमाते
सारे आम ज़हर बेचते
ये नशे मौत के सौदागर।
आज फिर होगी नीलामी
जहर से भरीं,
नशीली दारू की।
आएंगें फिर सज धज के
सौदागर सरूर और नशे के
खुले मौत बेचने वाले।
खूब उठेगी बोली
ठेकों की
ठेकेदारों की,
मात देगे इक दूजे को
लाखों में नहीं
करोड़ों की,
देखो चले गी फिर लड़ाई
नशे मौत के सौदागरों की।
पेमेंट तो पूरी होगी
जो पूरे साल जो साल चलेगी,
बीकेगा ज़हर दारू नाम से
सरे आम बेरोक टोक के,
मनमाने दामों से
वह भी नगद ठसक से।
हाथों हाथ उड़ेगी
दारू ज़हर की बोतल
मरेंगे बेमौत
न जाने कितने
गुलाम नशे के,
वह भी ज़हर गटक के।
पीछे रहते
रोते बिलखते
दाने दाने को तरसते
लाचार बूढ़े बीबी और बच्चे
कैसे जीवन बसर करते,
कितने हुवे अनाथ,
कहां किधर और कितने?
कैसी है विडंबना
कैसा है विधान
फलते फूलते
ऐशो आराम मज़े से जीते
अपने अपनों के संग
मौत के सौदागर
बंद बोतल में
दारू नाम की ज़हर बेचते।