December 12, 2024

भेडू- एक संस्मरण

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मूल लेखक: प्रो. रणजोध सिंह
अनुवाद: जीवन धीमान

प्रो. रणजोध सिंह

शरद ऋतु का सुहाना दिन था, मैं अपने दो अभिन्न मित्रों प्रो. तोमर और प्रो. राणा के संग माशु-चयोग गया हुआ था। दरअसल यह गांव प्रो. तोमर का ससुराल था और उसके साले की शादी थी, जिसमे शामिल होने के लिए हम लोग वहां पहुचें थे। यह गांव सिरमौर जिले का एक अति रमणीय स्थल है जो टोंस नदी के किनारे बसा हुआ है, नदी के इस और हिमाचल प्रदेश का यह सुंदर गांव है और दूसरे किनारे उत्तराखंड के पहाड़ी गांव किसी जन्नत का एहसास करवाते हैं। वैसे तो यह स्थान पोंटा साहिब शिलाई मार्ग पर सड़क से जुड़ा हुआ है। इस ग्राम में पहुँचने के लिए क्फोटा नाम का एक कस्बा है जो उस समय बिलकुल भी विकसित नहीं था। बाज़ार के नाम पर केवल दस-पंद्रह दुकाने थी जहाँ पर स्थानीय सब्जियों से लेकर रोज़मरा का सामान खरीदा जा सकता था। मगर आज की तिथि में तो इस कस्बे ने अच्छे-खासे शहर का रूप धारण कर लिया है, असंख्य दुकानों के इलावा एक डिग्री कॉलेज भी खुल गया है। खैर उस समय इस कस्बे से माशु-चयोग तक जाने के लिए लगभग पंद्रह किलोमीटर का कच्चा मार्ग ही था जिस पर या तो पैदल चला जा सकता था या फिर छोटी गाड़ियां द्वारा पहुंचा जा सकता था।

प्रो. तोमर की ससुराल में उत्सव सा माहौल था, होता भी क्यों न, आखिर घर में बेटे की शादी थी। पूरा घर पुरानी शैली से बना हुआ था। घर बनाने में अधिकतर लकड़ी का ही प्रयोग किया गया था। घर के निचले भाग में कुछ कमरे थे, जहाँ पर रसोई और मेहमानों के बैठने की व्यवस्था थी। घर के ठीक सामने एक खुला सा कच्चा आंगन था और आंगन के दूसरी तरफ पशुओं के लिए मांडो (पशुशाला) की व्यवस्था थी। घर के ऊपरी भाग में छोटे-छोटे कमरे बनाए गए थे जिनके दरवाजे लकड़ी से बनी हुई ज़ी (बरामदे) में खुलते थे, जहां पर बैठकर न केवल आंगन में होने वाले क्रियाकलाप का अवलोकन किया जा सकता था अपितु प्राकृतिक नजारों का भी आनंद लिया जा सकता था।

सबसे पहले मेरा ध्यान पशुशाला की और गया क्योंकि वहां पर एक बहुत ही सुंदर सफ़ेद रंग का एक बकरा बंधा हुआ था। उस दिन से पहले मैंने पूर्ण सफ़ेद बकरा देखा ही नहीं था। आज का समय होता तो मैं उस सुंदर जानवर के साथ कई सेल्फियाँ ले लेता मगर उस समय तक कैमरे वाले मोबाईल आम आदमी के पास नहीं पहुचें थे।

मुझे व मेरे मित्र प्रो. राणा को विवाह वाले घर से ठीक सामने एक रिश्तेदार के घर में ठहराया गया। वहां पर भी ठीक इसी प्रकार का आंगन था, दो मंजिला मकान था, बरामदा था, और प्रकृति का अद्भुत नजारा था। हम जैसे शहर में रहने वाले लोगों के लिए यह सुखद क्षण था। दूर पहाड़ी पर एक अन्य सुंदर घर बना हुआ था। मैंने जिज्ञासावश तुरंत प्रतिक्रिया की, “वाह ! … पहाड़ की चोटी पर बना हुआ घर कितना सुंदर है, न कोई धूल, न कोई शोर, न कोई प्रदूषण! यहां पर तो लोग बीमार ही नहीं होते होंगे।” “लगता है तुम्हें यह जगह कुछ ज्यादा ही पसंद आ गई है।” मेरे दोस्त ने हंसते हुए कहा। मैंने भी पूरी ईमानदारी से उतर दिया, “बिल्कुल सही कहा, मेरा दिल तो करता है कि मैं शहर की भीड़भाड़ को छोड़कर सदा सदा के लिए इसी रमणीक गांव में बस जाऊं।” मेरे दोस्त ने जोर से ठहाका लगाया और भेद भरी मुस्कान से बोला, “उस घर को जरा ध्यान से देख, वहां पर एक बकरा और छेलू भी बंधा हुआ है, हो सकता है कल उसी रस्सी से मैं और तुम बंधे हुए हो।”

एकाएक मेरे शरीर में डर की एक लहर सी दौड़ गई, क्योंकि इससे पहले मैंने भी शहर में अनेकों लोगों से ऐसी कहानियां सुन रखी थी कि पहाड़ के लोग कई प्रकार का जादू टोना जानते हैं। वह इस तरह के मंत्र विद्या जानते हैं कि किसी भी मनुष्य को मंत्र द्वारा भेडू, बकरा या छेलू बना सकते हैं। फिर याद आया कि किसी अनजान पहाड़ी गांव में जाकर चाय भी नहीं पीनी चाहिए, क्योंकि वह मंत्रों का प्रयोग कर चाय पीने वाले व्यक्ति को अपने वश में कर लेते हैं और व्यक्ति चाह कर भी उनके चंगुल से नहीं निकल पाता। अब सूर्यदेव विश्राम करने के लिए अपने सातों घोड़ों समेत आंखों से ओझल हो गए थे और रात का धुंधलका छाने लगा था। वही पहाड़ जो दिन के समय स्वर्ग सा सुंदर लग रहा था, अब भयानक मौन धारण कर किसी पहुंचे हुए तपस्वी की तरह शांत भाव से बैठा हुआ था।

विवाह वाले घर से रात्रि भोज का निमंत्रण देने के लिए प्रो. तोमर स्वयं आये थे। वहां पहुंचकर तो मानो स्वर्ग में ही पहुंच गए। घरवाले तो घरवाले, पूरे गांव वासियों के चेहरे पर उल्लास था। सभी लोगों को जमीन पर बैठाकर पारंपरिक भोजन जिसे स्थानीय भाषा में धाम कहा जाता है, खिलाया गया। सर्वप्रथम चावल, शक्कर, दूध और बहुत सारे देसी घी से बनी हुई मीठी खीर जिसका पारम्परिक नाम छोयिंचु है, परोसी गई जिसे पटैन्डे अर्थात एक तरह से पतली रोटी के साथ खाया जाता है।  इसके बाद इस भोजन में चावल के साथ पांच-छ: स्थानीय सब्जियां दी जाती हैं, जिनमे स्वाद के साथ-साथ पोष्टिकता का भी ध्यान रखा जाता है। इस भोजन को पत्तों से बनी हुई थाली, जिसे स्थानीय भाषा में पत्तल कहा जाता है, पर परोसा जाता है। धाम की विशेषता यह है कि इसमें भोजन विशेष प्रकार के रसोईयों द्वारा निर्मित किया जाता है और वहीं लोग इसे वितरित करने का कार्य भी करते हैं। आपको अपने स्थान पर बैठ भर जाना है तथा शेष कार्यों के लिए रसोईये स्वयं आपके पास आएंगे तथा आपको हर चीज़ आपकी पत्तल में मिलेगी, पर उतनी ही जितनी आप खा सकते हैं। इस कारण एक तो अनाज का अपव्यय नहीं होता, दुसरे साथ-साथ खाने से लोगों में आपसी प्रेम व स्नेह भी पनपता है।

भोजन के बाद नृत्य का दौर शुरू हुआ जिसे नाटी कहा जाता है सिरमौर की नाटी तो वैसे भी पूरे हिमाचल में बहुत मशहूर है। आरम्भ में तो इस नाटी में पांच-सात लोग ही थे मगर धीरे-धीरे अनेकों पुरुष, महिलाएं, युवक, युवतियां, बच्चें, यहां तक कि बूढ़े भी, सच कहूं तो पूरा का पूरा गांव ही इस नाटी में शामिल हो गया। ढोल-नगाड़ों की थाप और स्थानीय लोक गीतों के मधुर स्वरों संग नाटी का वैभव देखते ही बनता था। कुछ पुरुष तो नाचते-नाचते अंजलि भर-भर कर मदिरापान इस तरह कर रहे थे मानो चरणामृत ग्रहण कर रहे हों। मगर फिर भी अभद्रता लेशमात्र भी नहीं थी। यद्यपि दूरदर्शन और सिनेमा पर नाटी तो कई बार देखी थी मगर जीवन में वास्तविक नाटी उस दिन पहली बार देखी। देर रात तक नाटी चलती रही। मगर जब हम लोग अपने कमरे में पहुँचे तो रात के साढ़े बारह बज चुके थे। सामने पहाड़ अब भी मौन धारण कर गहन तपस्या में लीन था, वृक्ष चुपचाप किसी सजग प्रहरी की भांति खड़े थे, टोंस शोर मचाती हुई यमुना में विलीन हो जाने के लिए आतुर थी। अंधेरे में पहाड़ी पर बना हुआ घर कुछ-कुछ नजर आ रहा था, मगर आंगन में बंधा हुआ बकरा और छेलू नजर नहीं आ रहे थे, शायद उन्हें विश्राम हेतु पशुशाला में भेज दिया गया था।

सुबह उठते ही प्रो. तोमर भागते हुए मेरे पास आये और मुझसे बोले, “आप हमारे विशेष अतिथि हैं अतः एक महत्वपूर्ण परंपरा का निर्वाह आपसे करवाना है।” वे हमें उत्साहपूर्वक पशुशाला के ठीक सामने वाले आंगन में ले गए। वही सुंदर सफेद बकरा जिसके साथ मैं फोटो खिंचवाने के लिए लालियत था, उस आंगन के बीचो-बीच खड़ा था। उसके माथे पर लाल रंग का सिंदूरी टीका लगाया गया था, गले में मोली बांधी गई थी। उन्होंने मुझे बताया कि आज विवाह से पहले देवता को इस बकरे की बलि दी जाएगी तथा इस पुनीत कार्य को आप से करवाना है। मैं तो सुनकर पसीना पसीना हो गया। मेरी दशा समझ कर प्रो. तोमर ने मुझे आश्वस्त किया कि घबराने की बात नहीं है, मुझे केवल तलवार बकरे की गर्दन से छुआनी (टच करनी) है, शेष काम बाकी लोग कर लेंगे। भेडू बनाने वाली बात से मैं तो पहले ही परेशान था पर बलि के नाम से इतना डर गया कि मैंने इस प्रकार का विशेष अतिथ्य स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया। मैं तुरंत अपने कमरे में चला गया। प्रो. राणा भी मेरे पीछे पीछे आ गए और चुटकी लेते हुए बोले, “यार समझ आया कुछ, यहां पर लोगों को भेडू तो बनाते ही हैं, मगर समय पड़ने पर उनकी बलि भी दे देते हैं।”

उस दिन मेहमानों को गुल्टी यानि मांस खिलाया गया जिसे स्थानीय लोगों ने देवता का प्रसाद समझकर बड़े शौक से ग्रहण किया जबकि मुझे शाकाहारी भोजन में भी बकरे की गंध आ रही थी। विवाह उत्सव समाप्त हो गया तो मैंने बिना वक्त गवाए प्रो. तोमर के समक्ष अपनी जिज्ञासा को प्रकट कर दिया। वे पहले तो हँसे, फिर उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “तुम्हारी शंका निराधार नहीं है, मगर तुम निश्चिंत रहो, हमारे गांव में ऐसा कोई नहीं करता। हाँ शिलाई से आगे रोहनाट नाम की एक घाटी है, जहां पर कुछ लोग इस विद्या को जानते हैं।”

क्या सचमुच जीते जागते इंसान को भेडू बनाकर रस्सी से बांधा जा सकता है, मेरे लिए यह प्रश्न किसी अबूझ पहेली से कम नहीं था। शायद यही कारण था कि एक दिन में अपने कुछ मित्रों संग रोहनाट की वादियों में पहुंच गया। रोहनाट जा कर अगर आप सर उठाकर देखते हैं, तो चूड़ेश्वर महादेव (चूड़धार) के दर्शन होते हैं तथा सामने की तरफ शिमला जिले का चोपाल शहर का नज़ारा अपनी सुन्दरता बिखेरता है। वहां पर लोगों ने घर-घर में भेड़ बकरियां पाल रखी थी। यद्यपि इन पशुओं को लेकर मेरे मन में अनेक शंकाएं थी मगर थोड़ी ही देर में मैंने पाया कि सब कुछ सामान्य था। पूछने पर पता चला कि वहां पर ऐसा कुछ नहीं है जैसा मैं सोच रहा था। ये सब बातें होती तो थीं मगर अब मात्र इतिहास बनकर रह गई हैं। इस विद्या की जानकारी लेने के लिए मुझे किन्नौर जिले के चारंग गांव में जाना पड़ेगा, जो किन्नर-कैलाश महादेव की परिक्रमा में स्तिथ है।

अब मेरे जीवन का अगला उद्देश्य किसी तरह चारंग गांव पहुंचना था। मगर वहां पर पहुंचना इतना आसान नहीं था क्योंकि यह गांव सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ नहीं था पहले तो शिमला से लगभग बारह-तेरह घंटे की यात्रा करके रिकांगपिओ पहुंचना था। फिर रिकांगपिओ से थांगी गांव तक लगभग बीस किलोमीटर की दूरी बस या कार द्वारा तय करनी थी, फिर थांगी से लेकर चारंग तक बत्तीस किलोमीटर की यात्रा पैदल ही तय करनी थी क्योंकि रास्ते में पड़ने वाले नदी-नालों के कारण सड़क जगह जगह से टूटी हुई थी और वहां पर कोई गाड़ी नहीं जा सकती थी।

खैर मेरे कुछ साहसी मित्र जिनका उद्देश्य किनर कैलाश महादेव की परिक्रमा करना था, के संग मैं किसी तरह गिरते-पड़ते चारंग गांव पहुंच गया। किन्नर-कैलाश परिक्रमा अपने आप में एक संपूर्ण कहानी है इसे फिर कभी लिखूंगा। फिलहाल जब मैं यहां पर लोगों से मिला तो पता चला कि मेरी शंका शत प्रतिशत सही है।

हिमाचल के कई दुर्गम क्षत्रों में अभी भी लोग ऐसा करते हैं। आज से कुछ दशक पहले किन्नौर में भी लोग इस विद्या को जानते थे, परंतु उन लोगों ने यह विद्या नई पीढ़ी को हस्तांतरित नहीं की, इसलिए यह विद्या उन्हीं लोगों के साथ विलुप्त हो गई। वहां पर एक बुजुर्ग ने बताया कि आज भी सोलन जिले के मंगल गांव और कल्लु जिले के मलाणा गांव के लोग इस विद्या को जानते हैं।

किन्नर-कैलाश महादेव की परिक्रमा के पश्चात मैं अपने शहर नालागढ़ वापस आ गया। इस बीच मुझे पता चला कि मेरे एक मित्र के पिताजी सरदार प्रीतम सिंह सोलन के मंगल गांव से रिटायर हुए हैं और उन्होंने वहां एक हेड मास्टर के रूप में तीन साल तक नौकरी की थी। मैं तुरंत उनसे मिलने उनके ग्राम कोहलूवाल पहुंच गया। उन्होंने मुझे बताया कि वहां के लोग जादू-टोना, मंत्र-तंत्र आदि पर विश्वास तो बहुत करते हैं, मगर किसी इंसान को भेडू बना ले, ऐसा तो उन्होंने कभी नहीं देखा।

अब मेरा विशवास लगभग टूटने लगा था और उम्मीद की आखरी किरण कुल्लू जिले का मलाणा गांव था जहां तक पहुंचना न तो आसान था और न ही मेरे किसी भी मित्र की रूचि उस गांव में जाने के लिए थी। कारण, कुल्लू जिले का मलाणा उस समय तक एक ऐसा गांव था जो पूरे विश्व से अलग-थलग था। उनकी अपनी सभ्यता थी, अपना कानून था, न्याय करने का अपना तरीका था और वे अपनी सभ्यता और संस्कृति में बाहरी लोगों की दखलंदाजी पसंद नहीं करते थे। वहां पर समूह में जाना ही अच्छा था मगर मेरे समूह के लोग वहां जाने के लिए अभी तक अपना मन बना नहीं पाए थे।

अचानक मेरा प्रोग्राम लेह-लद्दाख-कश्मीर वाया कुल्लू मनाली बन गया। रात्रि विश्राम के लिए हम लोग कुल्लू में रुके। कुल्लू के जिस होटल में हम रुके उसकी बुकिंग मेरे एक प्रोफेसर दोस्त ने की थी, जो अत्यंत मिलनसार, स्नेह्वत्सल व मददगार प्रक्रति के व्यक्ति थे। स्थानीय लोग भी उनसे बहुत प्रेम करते थे। रात के समय वे भी हमसे मिलने होटल में आ गए। बातों बातों में मैंने उनसे मलाणा जाने का जिक्र किया तो यह बात भी बता दी कि मैं वहां क्यों जाना चाहता हूं। प्रोफेसर दोस्त ने जोर से ठहाका लगाया और खिलखिलाते हुए बोले, “यार इतनी सी बात के लिए मलाणा जाने की जरूरत नहीं है। यह विद्या तो कुल्लू के लोग भी जानते हैं। तुम्हें यकीन न हो तो स्वयं देख लो.. एक भेडू तो तुम्हारे सामने ही खड़ा है।” इतना कहकर वह जोर जोर से हँसने लगे, मगर मैं और मेरे मित्र आश्चर्यचकित हो उनका मुखड़ा देख रहे थे। हमारे चेहरों पर आचार्य के भाव देखकर उन्होंने खुलासा किया, “आज से लगभग तीन दशक पहले मैं ऊना से कुल्लू कॉलेज में नौकरी करने आया था। इस शहर की आवो-हवा तो सुंदर थी ही, लोगों का व्यवहार भी इतना सरल व मन-भावन था कि मैं यहीं का होकर रह गया| तुमने एक गीत तो अवश्य सुना होगा
‘दिल कहे रुक जा रे रुक जा, यहीं पे कहीं
      जो बात इस जगह वो कहीं पर नहीं’
मानो यह गीत मेरे लिए ही बना था|” वे कुछ देर के लिए रुके और मुस्कुराते कहने लगे, “बस फिर क्या… यहीं पर प्यार हुआ, इकरार हुआ, शादी हुई, बच्चे हुए, और यहीं पर मैंने घर बना लिया। सेब के बगीचे कुछ ससुराल वालों ने दे दिए और कुछ मैंने स्वयं खरीद लिए और मैं सदा सदा के लिए इसी शहर का हो गया। एक मैं ही नहीं, मैं अनेक लोगों के बारे में बता सकता हूं जो यहां पर महज घूमने या नौकरी करने के उद्देश्य से आए थे मगर पहाड़ों के मोह-जाल में ऐसे फंसे कि शादी करवा कर यही के हो गए। आप समझ गए कि पहाड़ आदमी को भेडू कैसे बनाते हैं। क्या तुम्हें अब भी मलाणा जाने की जरूरत है किसी भेड़ू से मिलने के लिए।”  सब मित्र एक साथ खिलखिलाने लगे और हमारे ठहाकों से पूरा होटल गूंज उठा।

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