डॉ. कमल के. प्यासा
अब की बार वी.आई.पी. रोड को जानें के लिए मेट्रो में सड़क से ऊपर पैदल पुल बन गया था। बस से उतरने पर क्रॉसिंग पुल को देख कर बड़ी खुशी व राहत मिली थी, कि अब की बार सड़क नहीं लागनी पड़ेगी। इस उम्र में चलती गाड़ियों के बीच से सड़क पार करना कोई आसान काम नहीं, और वह भी भारी भरकम ट्रॉली बैग के साथ! इस बार मैं पहली दफा क्रॉसिंग पुल से जा रहा था। जब ट्रॉली बैग उठा कर पुल की पौड़ियां चढ़ने लगा तो, मेरी तो न ही हो गई, इतना भारी बैग और वो पौड़ियां। मैं तो हांफने लगा था केवल दो पौडियों चढ़ कर ही!
तभी ऊपर की और से एक 20-22 बरस की लड़की लपक कर मेरी ओर आई और कहने लगी, “अंकल जी, मेरे पास पकड़ा दे इस बैग को। मैं इसे ऊपर पहुंचा देती हूं!”
“नहीं, नहीं बेटे, मैं उठा लूंगा, कोई बात नही।”
मेरी न नुकर के बावजूद भी वह मेरे हाथ से ट्रॉली बैग छुड़ा कर ले गई और उसे ऊपर पहुंचा दिया, फिर जल्दी से नीचे से आ रही मेरी पत्नी को (जो कि लाठी के सहारे चढ़ रही थी) अपने कंधे का सहारा दे कर सारी पौड़ियां चढ़ा कर फिर जल्दी से अपने गंतव्य की ओर निकल गई और हम दोनों बस एक दूजे को देखते ही रह गए!
अब हम दोनों आसानी से दूसरी ओर की पौड़ियां उतर कर माया गार्डन जाने वाले ऑटो में बैठ गए। बैठते ही पत्नी पूछने लगी, “कौन थी यह लड़की? आपकी जान पहचान की थी?”
“नहीं तो, मैं तो नहीं जानता कौन थी, होगी कोई, उसकी भेजी फरिश्ता। भगवान लंबी उम्र दे उसे। उसने तो ठीक ठाक हमें यहां तक पहुंचा दिया। ऊपर वाला सब देखता है।”