रणजोध सिंह
संध्या अपने रोते-बिल्खते नन्हे शिशु को किसी तरह नौकरानी के हवाले कर, हांफते हुए बस-स्टैंड पहुँची, परन्तु बस पहले ही निकल चुकी थी | अभी तक तो उसके कानो में उसके नन्हे शिशु का क्रन्दन ही गूंज रहा था, लेकिन अब उसके सामने बोस का निर्मम चेहरा भी घूमने लगा था | आज फिर देरी से पहुँचने के लिए उसे बोस की डांट सुननी पड़ेगी | वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी हुई सोच ही रही थी कि अचानक एक मोटर-साईकल ठीक उसके पास आकर शांत हो गई, जिसके ऊपर उसके कार्यालय के सहयोगी वर्मा जी सवार थे | बोस के प्रकोप से बचने के लिए वह वर्मा जी के मोटर-साईकल पर सवार हो गई |
मध्यान के समय मित्रों ने चुटकी ली, “भई वर्मा जी ! क्या बात है, आजकल बड़े हसीन लोगों को लिफ्ट दे रहे हो ?”
“अरे नहीं तुम लोग एकदम गलत सोच रहे हो, मैडम सड़क पर बस का इंतजार कर रही थी और मैं वहां से ऑफिस के लिए आ रहा था, सोचा मैडम जी को भी साथ लेता चलता चलू, इतनी सी हमदर्दी तो सहकर्मी के लिए बनती ही है |”
मगर न जाने क्यों ये शब्द उनके गले में ही अटक गए और वे खामोश रहे, और फिर एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ अपने कमरे में चले गए | वर्मा जी की ये खामोशी संध्या लिए बड़ी महँगी साबित हुई कयोंकि उस दिन के बाद लोग उसके बारे में तरह-तरह की बातें करने लगें |
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