September 17, 2024

बचपन के वो स्वर्णिम दिन — फादर्ज डे पर संस्मरण

Date:

Share post:

Late Sh. Sukh Nand Bali

डा. हिमेन्द्र बाली, साहित्यकार व इतिहासकार, कुमारसैन, शिमला

जीवन में संस्कार का संचरण माता-पिता के आचरण और शिक्षा से सम्भव हो सकता है. पिता दिवस के अवसर पर पुन: पिता जी की स्मृति मनोमतिष्क में ताजा हो जाती है. दुर्योग तो यह है कि 20 जून को पिता दिवस के अगले दिन ही मेरे पिता जी हम सब को छोड़कर चले गये. 21 जून 1987 की वह भयानक सुबह जब मैं अपने ननिहाल कुल्लू के  बाहरी सराज के भ्रमण से घर लौट रहा था तो एक मांसी के घर रूका था. जैसे ही मैं वहां पहुंचा तो मांसी की आंखों से बरबस अश्रुधारा बहने लगी. मैं स्तब्ध सा उनकी असहज स्थित को समझ नहीं पाया. उस समय मेरी आयु  19 वर्ष थी.बी.ए. द्वितीय वर्ष का प्राइवेट छात्र. मैं इस अवस्था समझ तो गया कि मेरे घर में कुछ अप्रिय घटा है. मेरा ध्यान पिता जी पर ही गया. 68 वर्ष की आयु थी उनकी.

मांसी ने रोते हुए बताया  कि वैद जी नही रहे.  मांसी व मामा व नाना जी क्या हर व्यक्ति पिता जी को वैद जी कहते थे. चूंकि पिता जी वैद्य थे. वे 1942 में आगरा विश्वविद्यालय से आयुर्वेदाचार्य थे और विश्वविद्यालय ने उन्हे शानदार शैक्षणिक करिअर के कारण वैद्यभूषण की उपाधि से अलंकृत किया था. आयुर्वेद का प्रगाढ़ ज्ञान और लोगों की नि:स्वार्थ स्वास्थ्य सेवा के कारण पूरे क्षेत्र के चितेरे थे. मांसी से पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर में स्तम्भित हो गया. सिर के ऊपर से जैसे स्नेह व सुरक्षा का साया उठ गया. मैं विचारशून्य सा सोचने लगा आखिर ये सब अचानक कैसे घटित हुआ?अभी दो दिन पहले घर से जब में रामपुर के लिये क्लर्क की परीक्षा के लिये निकला तो उनका आशीर्वाद लिया था. उनके अंतिम दर्शन थे पिता जी के. सुबह छ: बजे का समय था. सवेराखड्ड से किंगल जाने वाली बस का समय साढ़े छ: बजे का था. मैंने पिता जी से रामपुर जाने की बात पहले दिन नहीं की थी. इतना डर था पिता का कि पैसे की मांग अम्मा के माध्यम से ही उनसे हो पाती थी. ऐसा नहीं था कि पिता जी संतान के प्रति कठोर थे. मैंने कभी भी उन्हे छ: भाई-बहन में से किसी को मारते या डांटते नहीं देखा था. मैं परिचित था पिता जी की मजबूरी से. परिवार में कमाने वाला कोई नहीं था. चार लड़कों व दो लड़कियों के भरण पोषण का भार उन पर था. कोई नौकरी नहीं थी. महज वैद्यकीय उपचार से रूपया-अठन्नी कोई दे देता पिता जी उस से ही संतुष्ट थे. पागल कुत्ते के काटने का मंत्रों द्वारा अचूक उपचार के लिये वे पूरे हिमाचल में प्रख्यात थे. पूरे कोटगढ़ के प्रबुद्ध लोग पांगल कुत्ते के काटने पर दौड़े-दौड़े हमारे घर आते. घर पर चाहे कितना भी आवश्यक कार्य क्यों न हो.चाहे खेत-खलिहान में फसल बोने या समेटने का कार्य हो. पिता जी तुरन्त सब अपने काम छोड़ कर फरियादी लोगों के साथ निकल पड़ते. पिता जी की वापसी कब होगी यह हमें पता नहीं होता था. इतना तो तय था कि पिताजी घर से निकले तो दस-पंद्रह दिन बाद ही घर आयेंगे. मेरी माता जी जो साक्षात् देवी थी, वे परिचित थी कि वैद जी यदि घर से निकल गये तो जन सेवा उनके लिये सर्वोपरि थी. ऐसे वीतराग व्यक्ति को सचमुच मैंने आज तक नहीं देखा. पिता जी की संतवृति और उनका विरक्त भाव विलक्षण था. जब सप्ताह या दो सप्ताह बाद घर आते तो पूछने पर कहते कि फलां व्यक्ति आ गया तो उसके उपचार के लिये आगे निकल गया था. कैसा विरक्त और मुक्त व्यक्ति!मैं आज उनके चौंतीस वर्ष पूर्व महाप्रयाण के बाद भी उनके समकक्ष किसी को ढूंढकर भी नही पा सका हूं. गृहस्थ में रह कर ऐसी मुक्त आत्मा के घर में अपना जन्म लेना में अपना सौभाग्य मानता हूं.

पिता जी का इस तरह चले जाना सारे क्षेत्र के लिये अपूर्णीय क्षति थी. हम तो अनाथ हुए ही थे जनता भी स्वयम् को अनाथ समझकर शोक में छाती पीठ रही थी.

जब मैंने होश सम्भाला तब कोई चार वर्ष का बच्चा था. मैंने पिता को सदैव जनसेवा या कुल देवी ज्वाला माता की सेवा में ही पाया. चूंकि हमारी कुल की देवी का मंदिर मेरे घर के ठीक पीछे था. पिता जी सुबह होते ही स्नानादि कर मंदिर में प्रविष्ट हो जाते. पहले माता की मूर्तियां बर्तन साफ करते. फिर पूरे समर्पण से  दवी को मंत्रोच्चार के साथ  श्रृंगार करते. तदोपरांत पूजा की घंट्टियों की मधुर धुन पर पूजा होती. मैं पूरे मनोयोग से पिता जी की इष्ट के प्रति आस्थाभाव को देखता. पिता जी के उसी नृत्य कर्म ने मुझ में भक्ति व अध्यात्म का बीजारोपण किया. पिता जी देवी मां की सुबह की पूजा को अढाई-तीन घण्टों में पूरा करते थे. मां के प्रति इतना नि:स्वार्थ  समर्पण अद्वितीय था. पिता जी सुबह दुर्गा सप्तशती का नित्य पाठ करते थे. अत: सुबह आठ बजे यदि पिता जी मंदिर में पूजा करने गये तो दोपहर बारह बजे पूजा से निवृत होते थे. ऐसी अकाट्य इष्ट साधना को करने वाले मैंने ब्राह्मण भी नहीं देखे.घर पर चाहे कितना ही आवश्यक कार्य हो इससे पिताजी का कोई प्रयोजन नहीं था. बस अपनी इष्ट देवी के प्रति अटूट आस्था का संकल्प जीवंत था. सांय काल की पूजा  छ: बजे से रात ग्यारह बजे तक अविचल  चलती रहती. फिर सांय भी दुर्गा का पाठ होता. मैंने देखा कि  उनके द्वारा देवी के अक्षत  किसी पीड़ित व्यक्ति को देने से देवी के गूरों से भी ज्यादा प्रभाव उनका था. रामकृष्ण परमहंस की तरह देवी पर प्रचण्ड आस्था. तभी उनके हाथों देवी की  दैवीय अनुकम्पा याचक पर बरसती थी.

घर पर हम सभी रात्रि भोजन कर सोने की तैयारी में लग जाते. परन्तु पिताजी फिर रसोई में पहुंचते. माताजी एक आदर्श पत्नि की तरह पति की सेवा के लिये प्रतिक्षारत रहती. अम्माजी पिता जी को घर के आवश्यक काम का स्मरण दिलाती. पिता जी सहज ही प्रत्युत्तर में कहते: सब कुछ हो जायेगा. ये मां कर लेगी. माता जी कहती: फलां व्यक्ति ने हमारी जमीन पर कब्जा किया या कुछ और हुआ. पिता जी बिना क्रोध किये कहते:भगवान देखेगा…

पिताजी ने कभी भी यह नही कहा कि तुम बच्चों ने क्या पढ़ा या पढ़ाई कैसे चली है? कभी नही कहा.अम्माजी जरूर पिताजी को कहती कि बच्चों की पढ़ाई का ध्यान रखा करो. पिताजी कहते: ये माता स्वयम् देख रही है. मैं अपने बच्चों को देवी से सरस्वती का बरदान मांगता हूूं. बाकि ये स्वयम् देख लेगी! ईश्वर पर इतनी अटूट आस्था. यह भी सच था कि मैं व मेरे अग्रज पढ़ाई में अग्रणी थे. जब परिणाम आता तो गुरूजन बधाई देने आते: वैद जी आपके बच्चे प्रथम आये हैं…पिता जी हंसी में उत्तर देते: मास्टर जी मैं तो सोचता हूं कि कोई बच्चा फेल हो जाता. ताकि पशु हांकने वाला गोप मिल जाये. परन्तु ये तो फेल भी नहीं होते. मुझे लगता है कि पिता जी ने सांस्सारिक मोह को ईश्वर के चरणों में रख दिया था. न उन्हे हम से मोह था न ही घर को सुविधा देने की महत्वकांक्षा. केवल देवी की छ:-आठ घण्टे सेवा और किसी रोगी को स्वस्थ करने के लिये आयुर्वैदिक दवायें बनाने का शारीरिक श्रम. हम बच्चे भी रात में बैठ कर दवाओं के खरड़ को हाथों से हिलाते.पेट में कोई विकार हुआ नहीं तो आनंद भैरव रस की एक गोली चूस लेते तो आराम. कभी पिता जी पारा भस्म,स्वर्ण भस्म या लौह भस्म बनाने के लिये उपलों से भट्टी जलाया करते. वह उपले कई दिनों तक हांडी को ताप देते रहते..

पिताजी को नाड़ी आयुर्वेद ग्रन्थ पूरा कण्ठस्थ था. वह कहा करते कि उन्हे बारह वर्ष की आयु में संस्कृत के अठारह हजार श्लोक याद हो चुके थे. पिता जी विलक्षण बुद्धि के मालिक थे. उन्हे गीता के 701 श्लोक,तुलसीकृत रामायण की सभी चौपाईयां याद थी. वह सुनाते और हम किताब में देखते. पिता जी स्वयम् कहते कि जो वे किताब में एक बार पढ़ते वह उनके दिमाग में अमिट रूप में छप जाता. उन्हें क्षेत्र की ऐतिहासिक घटनाओं व लोक साहित्य का विशद ज्ञान था. इतिहास पर वे चलते फिरते शब्दकोश ही थे. मुझे पिताजी ने जो बचपन में ऐतिहासिक किस्से व घटनायें  सुनायीं उन्हीं  की पूंजी को मैं बांट पा रहा हूं. काश मेरे बचपन में उनका अवसान न होता. दस बीस वर्ष का और जीवन उन्हे मिलता तो उनकी प्रत्युत्तपन्न मति के बल पर दर्जनों किताबें मैं लिख लेता. परन्तु महान विभूतियां अल्प अवधि में अपने कार्य का निष्पादन कर प्रभु धाम चले जाते है.

पिता जी के मेरे साथ बड़ा घनिष्ट सम्बंध था. मैंने  पागल कुत्ते के मंत्र का विधान व सिद्धि उन्हे गुरू मान प्राप्त की. वैसे वे अपनी संतान को भी प्रभु की संतान मानते थे. यदि कोई पूछता :  वैद जी! आपके कितने बच्चे हैं? पिताजी बोलते: ये मेरे बच्चे नहीं ईश्वर के बच्चे हैं. मुझे संतान की उम्मीद कहां थी. चालीस वर्ष तक कोई संतान नहीं थी.फिर जब भगवान ने बच्चे दिये तो छ: बच्चे. सब उसकी लीला है. सचमुच पिता जी का सम्पूर्ण समपर्ण ईश्वर के प्रति था जो संतों में भी दुर्लभ है.
कितने संस्मरण लिखूं  पिताजी के बारे में हैं.

पिता जी कहते थे कि विद्या ही आदमी का परदेश में मित्र है. इस पर उन्होने एक आपबीती घटना सुनाई. पिताजी एक बार समीप के भड़ैवग गांव के व्यक्ति हेतराम के साथ अखरोट की जड़ दंदासा को जंगलों से उखाड़ने सुकेत के बल्ह क्षेत्र गये. हेतराम की वहां कहीं जान पहचान थी. वहीं वे रूके  थे. सर्दी के दिन थे. बाहर बारिश तेज थी. जहां वे लोग रूके थे वहां राज वैद्यआये थे. रोगियों का तांता लगा हुआ था. कमरा खचाखच भरा था. पिताजी कमरे के बाहर दरवाजे के साथ बैठ कर कमरे में बैठे राज वैद्य द्वारा रोगियों को जांचने की प्रकिया को देख रहे थे. तभी राज वैद्य ने किसी रोगी को देखकर रोग के विषय में श्लोक पढ़ा. मंत्र की पहली पंक्ति सही थी. परन्तु दूसरी पक्ति राजवैद्य ने बारह पृष्ठ आगे की कह डाली. पिता जी को नाड़ी परीक्षा ग्रंथ का यह श्लोक  आंखों के सामने प्रकट हो गया. यह भी कि यह श्लोक ग्रंन्थ के किस पृष्ठ पर है! पिताजी ने मन में सोचा यदि मैंने राजवैद्य  को श्लोक को गलत तरह से  कहने के लिये  टोका तो कहीं अपना अपमान समझ कर राजा से सजा न मिल जाये. दूसरी ओर पिता जी ने सोचा कि नीति यह कहती है कि जहां विद्या का अपमान हो वहां चुप रहना गुरू का भी अपमान है. फिर पिता जी ने राजवैद्य को सम्बोधित करते हुए कहा: महाराज! एक बार पुन: इस श्लोक को कहें. मैं  इसे पुन:सुनना चाहता हूं. सभी की निगाहें पिताजी की ओर मुड़ गई. राजवैद्य ने पुन: श्लोक में पुरानी गलती को दुहराया. फिर पिताजी ने कहा-श्लोक की पहली पंक्ति आपने ठीक कही. परन्तु दूसरी पंक्ति बारह पृष्ठ आगे की कही है. राजवैद्य ने गलती स्वीकार कर ली. पिता जी को राजवैद्य के समकक्ष आसन देकर सम्मान दिया. ऐसे थे साधारण दिखने वाले पिता जी असाधारण बुद्धि के स्वामी थे.

पिता जी संगीत के भी मर्मज्ञ थे हर राग का उन्हे ज्ञान था. किस समय किस राग को गाना है वे अच्छी तरह से जानते थे. दुख इस बात का था कि हरमोनियम नहीं था और न खरीदने की सामर्थ्य थी. अब जब संगीत सीखने के लिये यंत्र खरीदने की कूवत है परन्तु अब पिता जी जैसा संगीत मर्मज्ञ नहीं. यह भाग्य की विडम्बना नहीं तो और क्या?

पिताजी को लक्ष्मी का मोह नहीं था और न ही प्रसिद्धि की तुच्छ इच्छा. कर्तापन का पूर्णतया लोप. एक बार मेरी छोटी बहन ने गरीबी से तंग आकर पिताजी से कहा कि आप कुत्ते के इलाज के प्रति व्यक्ति पांच सौ रूपये लिया करें. हम बाहर शुल्क का बोर्ड लगायेंगे. पिता जी ने बहन को फटकारा. फिर मंत्र की विलक्षणता के रहस्य के बारे में बताया कि  इस मंत्र का प्रभाव तभी तक रहेगा जब तक  मंत्रकर्ता के मन में धनार्जन की किंचिन भी इच्छा न हो. वह किसी रोगी के उपचार के लिये किसी भी समय चलने को तत्पर रहे. पिताजी ने इस कठोर नियम का जीवन पर्यंत पालन किया. अंत भी किसी रोगी का उपचार करने के प्रयोजन में उसी के घर में उनका प्राणांत  हुआ. जब मेरी पिता जी से अंतिम मुलाकात थी तो माता जी के माध्यम से सुबह छ: बजे पैसों की मांग रखी थी. पिताजी बोले थे-चलो पैसे ले जाओ.जब तुम बनोगे तो हम तो देखने के लिये बचेंगे नहीं. जेब से पैसे निकालते उनका हाथ कांपा था.इसलिये नहीं  कि वे अपने बच्चों के हित के लिये कंजूसी कर रहे थे. इसलिये कि जेब में पैसे कम थे. गरीबी जैसे कि गले पड़ी थी. छ:बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा.जीवन बुढ़ापे की परछाईयों से घिरा था. मैं भी सोचता कि  पिता जी बूढ़े हो गये है जबकि दूसरों के पिता जवान हैं. मेरे पिता तो तब तक नहीं रहेगे जब हम कुछ बनेंगे. नियति ने भी ऐसा ही खेल खेला.चौंतीस वर्ष पूर्व पिताजी चले गये.परन्तु उस संत सदृश व्यक्ति की प्रेरणा और विलक्षणता मुझे अब भी प्रेरित करती रहती है. वे पीछे सबकुछ अधूरा छोड़र गये.उन्हे सचमुच देखने को कुछ न मिला.आज वो होते तो प्रसन्न होते. हमें संस्कार की खुराक मिलती. समाज को भी उनके विराट व्यक्तित्व की छांव मिल पाती. सदैव उनकी सुमधुर यादें मेरा मार्गदर्शन करतीं आई है. जो कुछ  बौदिक व नैतिक सम्पदा मेरे पास है वह सब मेरे पिताजी व माता जी की विरासत है. ईश्वर सदैव उन पुण्य आत्माओं को अपनी शरणागति दे और मुझे उन्ही के घर बारम्बार जन्म लेने का सौभाग्य  प्रदान करे.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Related articles

Himachal CM Urges Central Government to Release Rs. 23,000 Crore Dues

Chief Minister Thakur Sukhvinder Singh Sukhu said that the state government was laying the foundation of self-reliant Himachal...

Himachal Pradesh Awarded “Highest Achiever State in Overall Hydropower Capacity”

Himachal Pradesh has been awarded the prestigious "Highest Achiever State in Overall Hydropower Capacity" at the Global Renewable...

Himachal Pradesh to Formulate India’s First State Horticulture Policy

Himachal Pradesh will become the first State in the country to formulate its Horticulture Policy aiming to enhance...

Himachal Teck League 2024: Fostering Innovation in Agriculture and Technology

The Himachal Teck League 2024, organized by Vignan Learning Solutions in collaboration with Jaypee University, Waknaghat, concluded on a high note on 14th...