दीप्ति सारस्वत प्रतिमा
डैडी पहले बहुत ही
सजीले नौजवान थे
रईसों के से शौक़ रखते थे
उनके पास था एक सुंदर नारंगी रंग का रिकॉर्ड प्लेयर
उस पर बजता रहता मद्धम संगीत
भारतीय पाश्चात्य
शास्त्रीय से ले के पार्टी म्यूज़िक
सुंदर आधुनिक वस्त्रों के शौकीन थे
आंखों में सपने और अंदाज़ में जुनून
वे रहे होंगे अनेकों के हीरो
हमने तब होश संभाला ही था
गोद मे वे जब जब उठाते उनकी छाती और चौड़े कंधे
अच्छा खासा खेल का मैदान लगते
हम बड़े होते रहे वे सिकुड़ते रहे
उनके विविध वस्त्रों के शौक कब सिमट गए
सलेटी पैंट और सफ़ेद या उसके करीब के रंग की कमीज में किसी को आभास न हुआ
अब कोई उनके लिए
किसी चटक रंग का कपड़ा ले भी आता
तो तुरंत बदलवा के
वापस सलेटी ही खरीद के लाना पड़ता
फिर एक बार जब मैं लौटी
बड़े शहर के महंगे होस्टल से
मेरे रंग ढंग थे बदले हुए
साथ रहने वाले बच्चों के महंगे शौक़ मेरे
व्यक्तिव में थे झलकने लगे
ऐसे में डैडी को
हाथ में पकड़े देख बीड़ी
बड़ी शर्मिंदगी सी महसूस हुई
वो इंसान जिसने कभी सिगरेट के एक खास ब्रांड
के अलावा किसी और ब्रांड से समझौता न किया था
जो सिगरेट के धुएं से तफ़रीह में आ के
छल्ले बनाया करता और
हम खेल मान अपने नन्हें नन्हें हाथों को
उन छल्लों की ओर बढ़ा
चूड़ी की तरह पहनने की चेष्टा करते
डैडी जिनके बारे में चर्चे थे कि वे
नोट में सिगरेट की तरह तम्बाकू भर
धुआं उड़ाने का भी हौसला रखते थे; उनकी
उनकी उंगलियों में ठेठ देसी ठसक से विराजी बीड़ी!
हैरत से मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं
फिर भी मैं चुपचाप उनके पलंग के साथ वाली
कुर्सी पर बैठ गई
डैडी ने मुझे खोई खोई आंखों से देख
सामने बने पेग से एक बड़ा घूँट भर बीड़ी का कश लगाते याद किया
नॉस्टैल्जिक हो कर अपने किसी पुराने दोस्त को
और बोले वह हमेशा बीड़ी ही पीते थे
हमसे उम्र में काफ़ी बड़े थे
हम थे जवान और वो बुढ़ापे की ओर अग्रसर थे
हम दोस्त टहल रहे होते थे कि अचानक वो रुक कर
कुर्ते की जेब में हाथ डालते
और जेब में उनकी उंगलियां खुसफुसा कर
किसी चीज़ से बातें करने लगतीं
वो खुसफुसाहट हमें चौकन्ना कर देती
हम लगाते क़यास कि जेब से उछल के निकलेंगी
मुट्ठी भर टॉफियां
और हम सलीके से एक एक उठा लेंगे उनकी खुली
हथेली पर से
मगर वो खुसफुसाहट लंबी चलती
और हम ऊब कर कदम बढ़ाने लग जाते हौले हौले
फिर अचनाक जेब के अंदर से आती आवाज़ बंद
और उनका हाथ निकलता रहस्य को
उदघाटित करता सा बाहर ;
हमें दिखती उनकी उंगली में उलझी
एक बीड़ी
ये कह पिता खिलखिलाते हुए
बनाने लगे थे अगला पेग
मेरी रुचि बढ़ती देख
उन्होंने बिल्कुल दोस्त का अंदाज़ दिखाते हुए
लुंगी पे पहने कुर्ते की जेब में छुपे
बंडल में से निकाल के दिखाई बीड़ी
मेरा कुतूहल बढ़ रहा था कि डैडी कैसे
एक ही घूँट में कर डालते हैं पूरा का पूरा ग्लास खाली !
इत्ते में एक और अचंभा दिखा
वो सुलगा रहे थे, उल्टी बीड़ी
मेरे टोकने पे ठिठक गए
फिर कुछ क्षण एकटक देखते रहे मुझे
न जाने मुझे देख
या उस गुज़र चुके दोस्त को याद कर
भावुक हो आये
कहने लगे वो बिल्कुल ऐसे ही पीते थे
उल्टी बीड़ी
उसके बाद से मैंने कभी
उनको सिगरेट या सीधी बीड़ी पीते नहीं देखा
लम्बे अन्तराल के बाद एक बार फिर जब
वापस लौटी थी Y W C A से घर
डैडी रिटायर हो चुके थे
उनकी बीड़ी से उठते सतत धुएं से परेशान हो
मैंने टोक दिया था झुंझला कर
डैडी कितनी बीड़ी पीते रहते हो
एक बाद दूसरी…लगातार
और ये क्या आप अब बाजार भी
लुंगी और चप्पल में ही चले जाते हैं,
मम्मी बता रही थी कि हरिद्वार तक ऐसे हो आते हो!
पिता ने उसी भावुक अंदाज़ में एकटक देखा मुझे
ज़्यों दोस्त की याद आई हो
बोले बेटे
तुमको नहीं अंदाज़ बीड़ी पी पी के
कितने पैसों की बचत करता हूँ मैं…
और जितने पैसों में तुम ग्रेजुएशन कर रही हो
उतने में तो कोई होशियार बच्ची इंजीनियरिंग कर लेती…
डैडी के मुंह के रस्ते पहली बार निकला
अपनी बेटी के लिए
कभी का बीड़ी से बुना मग़र
अब तार तार, धुआं धुआं
एक सलेटी सपना…
जिसमें उनकी लुंगी उनका कुर्ता
उनकी आंखें उनकी लापरवाह बढ़ी दाढ़ी
उन के कांधों पर टिके बाल
सब रंग गए सलेटी
कमरे में घिर आया एक सलेटी आसमान…