सुकेत रियासत की सुरम्य स्थलाकृति में रची बसी देव संस्कृति व परम्परायें आस्था और मनोरंजन का पर्याय है. सुकेत के सतलुज घाटी क्षेत्र का पर्वतीय क्षेत्र पौराणिक घटनाओं से परिपूर्ण अनेकानेक कला व संस्कृति के वैभवपूर्ण परिदृश्य से सम्पृक्त है. वास्तव में सतलुज घाटी की पृष्ठभूमि में वैदिक व पौराणिक घटनाओं का प्रमाणिक स्वरूप दृष्टिगोचर होता है. सुकेत के चवासी गढ़ के अंतर्गत तेबनी महादेव व बगड़ा के अंतर्गत घमूनी नाग की देव-संस्कृति का मौलिक स्वरूप यहां के सामाजिक सरोकारों में रचा बसा हुआ है. पश्चिमी हिमालय के इस अंचल में विशेष धार्मिक परम्परायें प्रचलित हैं जिनमें सामाजिक व सांस्कृतिक समारोहों में लोक आस्था और समरसता के दर्शन होते हैं.आषाढ़ संक्रांति व पर्ववर्ती समय में सतलुज घाटी क्षेत्र में देव समुदाय रथारूढ़ होकर अपने विशिष्ट स्थान पर जाकर अपनी प्रजा को शुभाशीष प्रदान करते हैं. इसी देव समागम के साथ साथ कई देवता मंदिर से बाहर निकलकर निश्चित सरोवर, जल स्रोत एवम् नदी में स्नान करते हैं. सतलुज घाटी के अंतर्गत मण्डी के नाचन क्षेत्र के आराध्य व बड़ा देव कमरूनाग  आठ हजार फुट की ऊंचाई पर अपने सरोवर कुमराह में स्नान करते हैं. इसी दिन सनोर-बदार  घाटी के प्रतिष्ठित देव पराशर ऋषि मंदिर से निकलकर समीपस्थ स्वयम् द्वारा प्रकट सरोवर में स्नान करते.

इस अवसर पर सनोर-बदार घाटी के तीन दर्जन देव उन्हे श्रद्धांजलि देने मेले में पधारते हैं. नाचन क्षेत्र में कमरूनाग व सनोर-बदार घाटी के पराशर ऋषि के सम्मान में आयोजित देव समागम को  सरनाहौली उत्सव कहते हैं.  सतलुज घाटी के अन्य क्षेत्र कुमारसैन में क्षेत्र के देवाधिपति महादेव कोटेश्वर आषाढ़ संक्रांति को अपने चिन्ह जगुण्ठ में आरोहित होकर कुमारसैन कस्बे के समीपस्थ जार व नाहल गांव में जागरा उत्सव को सुशोभित करते हैं. यहां महादेव जार व नाहल में अपनी देहरी ‘लघु मंदिर’ में विराजित होकर आशीष प्रदान करते हैं. यहां महादेव अढाई फेरे नाटी नृत्य नाचकर इसी दिन वापस अपने धाम मढोली लौट आते हैं. शांगरी के शिवान गांव में  ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा अर्थात् आषाढ़ संक्रांति की पूर्व संध्या पर  मरेच्छ देवता व उनके सहयोगी नाग देवता चोपड़ू  के धात्विक विग्रहों का स्नान कर देहरे में रात्रि पर्यंत दर्शनात् प्रतिष्ठित किया जाता है. लोग देव गण की प्रशस्ति में लोक गीत ‘छाहड़ी’ का गायन करते हैं. वस्तुत: ज्येष्ठ व आषाढ़ महीनों में सतलुज घाटी के ऊपरी भाग कुमारसैन व शांगरी में आयोजित देवोत्सव को जागरा कहते है. यहां जागरा दिन और रात्रि दोनों बेला में आयोजित होते हैं. जागरा यहां जातर का पर्याय भी है. छ:-सात आषाढ़ को महादेव कोटेश्वर की दिव्य उपस्थिति में  कुमारसैन व शांगरी की सीमा पाटीजुब्बल  नामक स्थान पर जातर का आयोजन होता है.

मण्डी जिले के सतलुज घाटी क्षेत्र के चवासी गढ़ व बगड़ा क्षेत्र के देव प्रमुख क्रमश: तेबनी महादेव और धमूनी नाग आषाढ़ संक्रांति को सतलुज के किनारे अपने सम्बधित पावन स्थल पर रात्रि प्रवास कर लोगों के दुखों का शमन करते हैं. इस तरह नाचन क्षेत्र के कमरूनाग व सनोर-बदारक्षेत्र  के पराशर ऋषि की तरह तेबनी महादेव और धमूनी नाग सतलुज तट पर प्रवास कर अपने धाम लौटते हैं. आषाढ़ संक्रांति के दिन अपराह्न देव तेबनी रथारूढ़ होकर सतलुज के किनारे अपने क्यार (सिंचित क्षेत्र) कोट के लिये प्रस्थान करते हैं.अपने मंदिर से वाद्य यंत्रों पर देव ताल की धुन पर प्रस्थान कर महादेव मंदिर के समीप  अपने खेत में रूकते हैं. यहां वे आधि-व्याधि ग्रसित लोगों पर छाए प्रकोप का शमन करते हैं. तेबन प्राचीन काल से शिव की पावन भूमि रह है. महाभारत काल में पाण्डवों ने यहां कुछ समय प्रवास कर महादेव को प्रसन्न किया था. तेबन गांव में सौ परिवार हैं जिनकी किसी भी देव कार्य में उपस्थिति अवश्य मानी जाती है. तेबन का क्षेत्र चवासी गढ़ के अंर्तगत है जहां के गढ़पति चवासी नाग हैं. तेबनी महादेव तेबन,सराहन और गोपालपुर गांव के मान्य देव हैं. गांव के निवासी शंकर ठाकुर के अनुसार तेबन गांव के पूर्ण आबादी स्थान में से आधे क्षेत्र में मंदिर परिसर अवस्थित है. तेबनी महादेव आषाढ़ संक्रांति को सभी देवलुओं सहित सांय सतलुज के दायीं ओर अपने स्थान कोट पहुंचते हैं.  सुकेत के बगड़ा गढ़ के देव शिरोमणि धमूनी नाग स्यांज,सेरी,डमेहल व उतुंग शिखर धमूनी में प्रतिष्ठित हैं.

नाग धमूनी आषाढ़ संक्रांति को  रथारोहण कर सांय  सतलुज के किनारे नांज गांव में  पहुंचते हैं. नांज में धमूनी नाग के मेला स्थल की स्थिति कोटलू खड्ड के उस पार तेबनी महादेव के  स्थल कोट गांव के समानांतर है. सांय जब दोनों ओर देव पूजन का आयोजन होता है तो देव नृत्य के साथ-साथ देवता के गूर भी देवारोहण में नृत्य करते हैं. नाग देव धमून और महादेव तेबनी के रथ  एक-दूसरे के प्रति अभिमुख होकर भावपूर्ण मिलन करते हैं. दोनों देवताओं के गूर इतनी दूरी से ही एक-दूसरे का ऊंचे स्वर में सम्बोधन कर कुशलक्षेम पूछते हैं. देव मिलन का यह भावोत्पादक दृश्य मनोरम और चिताकर्षक होता है. तेबनी महादेव की समस्त जनता केवल मंदिर के प्रमुख पदाधिकारियों को छोड़कर अपने अपने घर लौट जाती है जबकि नांज में धमूनी नाग के मेला स्थल में लोग बड़ी मात्रा में वहीं रात्रि प्रवास करते हैं. ऐसी मान्यता है कि जो नांज में नाग धमूनी की विद्यमानता में रात्रि प्रवास करते हैं उन्हे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है. तेबनी महादेव अगामी दिन कोट गांव से ठीक नीचे सतलुज नदी के तट पर पहुंचकर नदी में स्नान करते हैं. इस दौरान देवता के गूर व रथ वाहक (रथई) रथ को उठाकर नदी में प्रवेश करते हैं. स्नान के बाद महादेव अपने गंतव्य की ओर वाद्य यंत्रों की सुमधुर धुन पर प्रस्थान करते हैं. महादेव तेबनी की देव परम्परा के कुछ नियम बहुत कड़े हैं. महादेव के रथ को केवल नंगे पांव ही उठाया जाता है.महादेव देव यात्रा पर पैदल ही प्रस्थान करते हैं. नांज में आषाढ़ संक्रांति की रात्रि को ठहरे धमूनी नाग भी अगामी दिन नांज से  वापस अपने क्षेत्र यात्रा करते हुए सेरी और चौरीधार के बीच जाच्छ नामक स्थान पर रूकते हैं. यहां नाग धमूनी का पहाड़ी शैली का मंदिर स्थापित है.

धमूनी नाग को पाण्डवपुत्र अर्जुन,ऋषि वैरागी,शेष नाग और देवर्षि नारद का रूप मानने की अलग अलग परम्परायें हैं. नाग धमूनी के मुख्य मंदिर स्यांज,सेरी,कुन्हों व कुमारसैन के पलारन गांव में हैं. देव भारथा के अनुसार वैदिक काल में जब ऋषिगण पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में अपने आश्रम स्थापित कर रहे थे उसी काल में कुल्लू के लारजी क्षेत्र धामण से यहां ब्राह्मण अपने साथ ऋषि देव लाये. ऋषि ने स्वयम् को यहां प्रतिष्ठित कर पूर्ववर्ती नाग देव को भी अपने साथ प्रतिष्ठित किया. जबकि लोक मान्यता यही प्रचलित है कि यह देव नाग धमूनी है. नाग धमूनी को पाण्डव पुत्र अर्जुन का रूप भी माना जाता है. सम्भव है कि पाण्डव अज्ञातवास काल ,लाक्षागृह की घटना व स्वर्गारोहण के बाद यहां रहे हैं. अत: यहां की देव परम्पा में यहां के आदि देव नाग ऋषि व पाण्डव पुत्रों के रूप में एकाकार होकर पूजे जाते रहे हैं. नाग धमूनी के भावी गूर को अपने  पद पर अासीन होने  से पूर्व  नांज गांव के समीप बह रही सतलुज नदी में आवेशित अवस्था में कूद कर गहरे जल में नीचे नदी तल से सूखी रेत लानी होती है. इसी परीक्षा से माहूंनाग के सम्भावित गूर को भी मगाण नामक स्थान पर सतलुज के गहरे जल से सूखी रेत मुट्ठी में लानी होती है. नाग धमूनी  महादेव तेबनी की तरह इस अवसर पर सतलुज में स्नान नहीं करते हैं. वास्तव में सतलुज घाटी के कई देवता सतलुज घाटी में स्नान करते हैं. परन्तु सतलुज के सानिध्य में आषाढ़ संक्रांति को रात्रि विश्राम कर अपना आशीष लोगों को प्रदान  करते हैं. सतलुज घाटी के शांगरी बड़ागांव के देवता ब्रह्मेश्वर देवता व शांगरी के बानेश्वर देवता भी अपने क्षेत्र के सतलुज नदी से लगते तटीय स्थान पर आकर सतलुज नदी के जल से अभिषेक करते हैं. वास्तव में सतलुज घाटी के अधिकत्तर देवों का प्राकट्य वैदिक नदी शुतुद्री के जल में मानसरोवर से बह कर आए धात्विक स्वरूप में हुई है. सतलुज नदी के किनारे बाहरी सराज के  बैहनी महादेव, बड़ागांव शांगरी के ब्रह्मेश्वर देव,शांगरी के बानेश्वर देवता व तुंदल के कशोई नाग आदि प्रकट हुए हैं. बैहनी महादेव व खेगसू की आदि शक्ति माता कुसुम्बा का नित्य अभिषेक सतलुज जल से ही होता है. समग्रत: आषाढ़ संक्रांति व पर्ववर्ती काल में आयोजित मेले सतलुज घाटी की देव संस्कृति विशिष्ट पहचान बनाये हुए है.

Previous articleCM Pays Obeisance at Sri Gurudwara Sahib in Chamba
Next article15 Developmental Projects of Rs. 162 crore : CM

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here