कुमारसैन तहसील के अंतर्गत पाटीजुब्बल नामक स्थान पर छ: व सात आषाढ़ को मेले का आयोजन होता है जिसे पाटीजुब्बल जातर कहा जाता है. यह उत्सव देव परम्परा के साथ साथ ऐतिहासिक महत्व से जुड़ा है. इस मेले में कुमारसैन की शिवान,बड़ागांव,शलौटा,मलैण्डी,करेवथी,जंजैली व कांगल आदि दर्जनों पंचायतों के लोग सम्मिलित होकर लोक परम्परा का निर्वहन करते हैं. इस मेले का आरम्भ कुमारसैन रियासत के देव शिरोमणि महादेव कोटेश्वर के चिन्ह ‘जगुण्ठ’ के आगमन के साथ होता है. महादेव कोटेश्वर छ: आषाढ़ को अपने धाम मण्ढोली से वाद्य यंत्रों की सुमधुर धुन के साथ पाटीजुब्बल प्रस्थान करते हैं.
यहां महादेव अपने थड़े पर विराजित होकर लोगों को आशीष प्रदान करते हैं. महादेव कोटेश्वर पूर्ववर्ती युगों से कुमारसैन पर अपनी आध्यात्मिक सत्ता के साथ साथ लौकिक सत्ता को सम्भाले हुए हैं. एक हजार ई. में महादेव ने गया से आये कीरत सिंह को कुमारसैन की लौकिक सत्ता प्रदान की. स्वयम् चार वर्ष में एक बार अपनी प्रजा को दर्शन देने रथारूढ़ होकर बाहर आने की परम्परा का प्रवर्तन किया. अन्यथा अन्य देवोत्सव, जातर अथवा आतिथ्य स्वीकार करने (फनैर) व अन्य धार्मिक अनुष्ठान पर महादेव अपने चिन्ह जगुण्ठ के माध्यम से अपने लोक दर्शन सुलभ करते हैं. पाटीजुब्बल मेले के आयोजन की पृष्ठभूमि में कुमारसैन व शांगरी की रियासतों के बीच हुई लड़ाई का संदर्भ निहित है. शांगरी रियासत की सीमा कुमारसैन रियासत से सटी होने के कारण निरन्तर सीमा पर संघर्ष रहता था.18वीं शताब्दी में दोनों रियासतों के बीच लम्बा संघर्ष छिड़ गया. कहा जाता है कि यह संघर्ष 10-12 वर्षों तक चलता रहा.
इसी समय कुल्लू का राजा मान सिंह ने (1688-1719) में बुशहर के पंद्रबीश क्षेत्र व लाहौल के क्षेत्र को जीत कर केपू तक के क्षेत्र को भी अपने अधिकार में ले लिया. इसके उपरान्त मानसिंह ने शांगरी ठकुराई को जीत लिया. मानसिंह ने कुल्लू की सीमायें क्योंठल,मधान,भज्जी व कुमारसैन की सीमा टिक्कर तक अपनी फैला डाली. परन्तु दुर्भाग्यवश मानसिंह शांगरी रियासत के सीमावर्ती क्षेत्र उर्शू में कुमारसैन व बुशैहर की सेना के हाथों मारा गया. कुमारसैन के तत्कालीन राणा अजमेर सिंह ने शांगरी के क्षेत्र छबीशी को जीत कर शांगरी की सीमा पर शांगरी गढ़ पर धावा बोल दिया. दीर्घकालीन संघर्ष के बाद कुमारसैन ने शांगरी किले की लड़ाई में शांगरी के ठाकुर को पराजित कर दिया. अत: कुमारसैन की शा़गरी पर इस विजय के उपलक्ष पर किले के समीप पाटीजुब्बल में विजय स्वरूप मेले का आयोजन किया गया.
इस प्रकार कुमारसैन की सीमा का विस्तार छबीशी क्षेत्र को जीत कर शांगरी के किले के समीप पाटीजुब्बल तक हो गया. महादेव कोटेश्वर चार साला चार रथी यात्रा के उपरान्त भी अपने क्षेत्र के भ्रमण पर निकलते थे. इस देव यात्रा को ‘रजाड़ी’ कहा जाता था. छड़ीबरदार राणा भी रजाड़ी पर महादेव के साथ भ्रमण पर निकलते थे. अत: पाटीजुब्बल मेला जहां देव परम्परा का उत्सव है वहीं यह मेला दोनों रियासतों के संघर्ष का स्मरण दिलाता है. अन्यथा शांगरी की सीमायें इस संघर्ष से पूर्व कुमारसैन के समीप टिपरी तक फैली थीं. महादेव कोटेश्वर ने पूर्व में द्वापर युग के अंतिम चरण में मलैण्डु देव को छबीशी का पूर्ण क्षेत्र प्रदान किया. पूर्व में रजाड़ी (रजवाड़ी) पर जब महादेव भ्रमण पर निकलते थे तो मलैण्डु देव अपने रथ में आरूढ़ कर स्वागत करते थे.
कोटेश्वर महादेव के सम्मान में पूरे कुमारसैन में ज्येष्ठ मास में जागरा मेलों का आयोजन अनेक स्थानों पर होता है.जागरा देवोत्सव पर महादेव अपने चिन्ह जगुण्ठ में मेला स्थल पर विराजित होते हैं. जागरा मेले का शुभारम्भ महादेव सतलुज के किनारे अपने भण्डार खेखर से करते हैं. इसके उपरान्त भराड़ा,चलाण,देथल व नाहल में महादेव कोटेश्वर के सम्मान में जागरा मेलों का आयोजन होता है. पाटीजुब्बल की जातर महादेव कोटेश्वर का अंतिम जागरा माना जाता है जो शांगरी पर विजयोत्सव का प्रतीक है. सात आषाढ़ को पुन: महादेव पाटीजुब्बल मेला स्थान पर पधारते हैं. बड़ी संख्या में लोग क्षेत्र का आशीष प्राप्त करने के लिये उमड़ पड़ते हैं. अपराह्न महादेव के गूर व देव कुमड़ी (देव समिति) अढाई फेरा नृत्य कर अपने धाम मण्ढोली की ओर प्रस्थान करते हैं. आषाढ़ संक्राति व उसके अगामी दिवस में सतलुज घाटी में देव समुदाय अपने पवित्र सरोवर व प्राकट्य स्थान व स्थल विशेष की यात्रा करते है. इन देव यात्राओं का मुख्य प्रयोजन नई फसल के प्रथम भाग को प्राप्त करना रहा है. लोग अपनी नई फसल का अंश उपभोग से पूर्व अपने देव को अर्पित कर धन धान्य की वृद्धि की प्रार्थना करते हैं. सम्भवत: महादेव कोटेश्वर की अपने क्षेत्र में जागरा देवोत्सव पर भ्रमण क्षेत्र रक्षा एवम् समृद्धि के आशीष का प्रतीक है.
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