प्रदेश में वर्तमान सरकार दूध के दाम बढ़ाकर जब किसानों एवं पशुपालकों को लाभ देने की गारंटी दे रही है और दूध के साथ गोबर भी खरीद कर किसानों का कुछ भला करना चाहती है। ऐसे में दुधारू पशुओं का पालन उनकी देखरेख के लिए प्रोत्साहन दिया जाना भी जरूरी है। क्योंकि वर्तमान में समस्या है कि चरागाह कम होने और चारा न मिलने की, फसल लगाने में हो रही कमी, जिससे पशुओं को घास नहीं मिल पा रहा है। नई पीढ़ी के लोग बच्चों की शिक्षा के लिए गांव छोड़कर शहर के लिए पलायन कर रहे हैं। ऐसे में बुजुर्ग घर में अकेले पड़ गए हैं और युवा महिलाएं और पुरुष शहर की ओर पलायन कर रहे है। यदि गांव में ही अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य मिल पाए तो यह पलायन कुछ हद तक रोका जा सकता है। सड़कों पर गाय, बैल बेसहारा घूमते हुए अक्सर देखे जा सकते हैं। जिससे यह स्पष्ट होता है कि जो अब दुध नहीं दे रहे हैं उनको पालना लोगों के लिए बोझ बन गया है। उन्हें घर से निकालकर जंगलों में छोड़ देने के सिवाय उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं रह गया है यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस देश में गाय की माता के रूप में पूजा होती है और उसके दूध, दही, घी और मक्खन से हमारे घर परिवारों की पहचान होती रही है वह आज बेसहारा हो चुकी है।

लेकिन इसके लिए अकेला किसान को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है समाज का चिंतन और सरकार की लापरवाही इसके लिए जिम्मेदार हैं। नाम मात्र के लिए कुछ गौशाला खोली जाती हैं लेकिन बहुत कम गौशाला ऐसी बन पाई है जहां पशुधन की ठीक से देखभाल होती है। लेकिन जब तक हर घर में गाय नहीं पाली जाती तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है और सरकार को इस मामले में जरूर पहल करनी चाहिए। दूसरा बहुत बड़ा कारण हिमाचल में खेती के लिए छोटे-छोटे ट्रैक्टर का उपयोग किए जाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और गांव गांव में घर घर में छोटे-छोटे ट्रैक्टर खेती के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं लोहे के इस बैल के घरों में आते ही बैल को जंगल की ओर भगा दिया गया है। जानवरों द्वारा खेती का नुकसान किए जाने और बहुत कम दामों पर प्रचुर मात्रा में सरकारी राशन मिलने पर भी लोगों का खेती करने की ओर रुझान बहुत कम हुआ है जोकि भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है और इससे जमीन भी तेजी से बंजर होती जा रही है। खेती न करने का एक बहुत बड़ा कारण है जंगली जानवरों द्वारा फसल का नुकसान किया जाना। रात के अंधेरे में जंगली सूअरों का झुंड फसल पर जब हमला बोलता है तो सुबह को खेतों में कुछ नहीं दिखता है और लोगों की मेहनत एक रात में ही खत्म हो जाती है। इन जंगली जानवरों से फसलों को बचाने का भी कारगर उपाय अभी तक नहीं हो पाया है और खेती छोड़ देना मात्र कोई समाधान नहीं है। पहले हिमाचल का हर किसान अपने खेतों में भरपूर अन्न उगा कर पूरे साल भर का परिवार का गुजर-बसर कर लेता था वह अब डिपो के राशन पर निर्भर हो चुका है और कार्य संस्कृति में खेती करने के रुझान में भी बहुत कमी आई है जिसे एक अच्छा संदेश नहीं कहा जा सकता है।

 

पहले शिमला के जाखू हनुमान मंदिर में बंदर पाए जाते थे और बंदर सैलानियों के लिए एक आकर्षण का केंद्र होते थे । धीरे-धीरे शिमला से हिमाचल के अनेक भागों में भी तेजी से बंदरों की संख्या बढ़ती गई और उन्होंने हिमाचल के बहुत बड़े हिस्से को घेर लिया है। जहां बंदर पहुंचे वहां खेती करना मुश्किल हो गया। क्योंकि जब बंदर बीज ही निकाल कर खा जाएंगे तो फसल कहां से हो पाएगी। इस ओर भी सरकार को ध्यान देने की जरूरत है ताकि बंदरों से खेती को बचाया जा सके। वर्तमान में आवारा कुत्तों की संख्या में हो रही बढ़ोतरी भी लोगों के लिए एक चिंता का विषय बन गई है। सड़कों पर कुत्तों के झुंड आवारा घूमते हुए अक्सर देखे जा सकते हैं। कौन सा कुत्ता कब किसको काट दे कुछ कहा नहीं जा सकता । बहुत सारी ऐसी वारदातें हुई हैं कि किसी चलते आदमी को अचानक कुत्ते ने काट लिया। सरकार का इन आवारा कुत्तों पर अभी तक तो कोई नियंत्रण नहीं बन पाया है और न ही कोई कारगर योजना सामने आई है। शिमला के माल रोड पर घूमती हुई एक गाड़ी कभी कभार कुत्तों को पकड़कर कहीं ले जाती हुई जरूर दिखती है लेकिन उसके बाद वे कुत्ते कहां छोड़े जाते हैं पता नहीं परंतु उन कुत्तों को फिर से वापस माल रोड पर आतंक मचाते देखा जा सकता हे। इस तरह अगर देखें तो सूअरों और बंदरों के आतंक से फसल लगाना, फसल की रखवाली करना और कुत्तों की दहशत से लोगों का आना जाना कठिन हो गया है। अगर सरकार ने समय रहते इन समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया और बाजिब समाधान नहीं तलाशा तो बहुत देर हो जाएगी। न किसान फसल उगा पाएंगे और न ही स्कूल के बच्चे और आम नागरिक सड़कों पर बंदरों और कुत्तों के आतंक से चल फिर सकेंगे।

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