डॉo कमल केo प्यासा
प्रेषक : डॉ. कमल के . प्यासा

बू
गंदगी की
गलने की
सड़ने की
चाहे हो दूषित खाद्यानों की
या ऋणात्मक सोच विचारों की !

बू
आ ही जाती है,
अंतर से
फासले से
स्तर बदल जाने से
कुछ ऊंचा उठ जाने से
या आभासी चमक आने (पाने)से !

बू
कैसी भी हो
रुकती नहीं
छुपती नहीं
फैल जाती है
पहचान पाने से
आदर सत्कार बड़ जाने से
या औकात भूल जाने से !

बू
परिपक्वता की
हद से ज्यादा पक्क जाने की
बीच में ही दब जाने की
घुटन की
अरे कैसी भी हो
रोको उसे,
मत पनपने दो
न बड़ने दो !

बू
कहां से
कैसे उठती है
जानों गुण धर्म पहचानो
तदानुसार यथा ही रहने दो !
न छेड़ छाड़ करो न पुचकारो
न मिलो न मिलने दो
बस खुले एकांत में विचरने दो !

बू
से (क्योंकि)
बढ़ती हैं दूरियां
फैलती है नफरत,
दिलों में पनपती है कटुता
और तड़पाती है आंतरिक
अशांति मन की !

बू : डॉo कमल केo प्यासा

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