
दीवान चन्द के यहां यदि कहीं उसकी डाक के साथ गलती से किसी दूसरे के नाम की डाक आ जाती तो वह आग बबूला हो उस चिट्ठी पत्री को फैंक देता या फाड़ देता था। लेकिन कहीं समाचार पत्र या पत्रिका आ जाती तो खुशी से उठा कर पढ़ने लगता था। दीवान चन्द करता भी क्या उसकी तो आदत ही बन गई थी। उधर दीनू भाई के यहां यदि गलती से किसी की चिट्ठी-पत्री पंहुचती तो उसे चिन्ता समाने लगती.. “न जाने किसी की कैसी जरूरी चिट्ठी होगी ?? हो सकता है कोई दुःख भरा या खुशी का ही सन्देश हो..। “और वह उस चिट्ठीपत्री को गन्तव्य तक पहुँचा कर ही शान्ति महसूस करता था।
उस दिन उसकी डाक के साथ ही साथ एक पत्र ऐसा भी था जो उसका नहीं, बल्कि किसी देवकृष्ण सपुत्र दीवान चन्द का था। उसने देखा पत्र के बाहर जरूरी भी लिखा था.. शायद किसी साक्षात्कार से सम्बन्धित था। उसकी बेटी को भी तो उसी जैसा साक्षात्कार पत्र पिछले रोज़ ही तो प्राप्त हुआ था और वह साक्षात्कार के लिए शिमला जाने की तैयारी कर रही थी। दीनू भाई की चिन्ता ओर बढ़ गई। “अरे भाई साक्षात्कार का पत्र है यदि समय रहते प्रार्थी तक न पहँचा तो वह साक्षात्कार से वंचित रह जाएगा क्या किया जाए..? लैटर वाॅक्स में भी डाला तो समय पर नहीं पहुँच पाऐगा।“
सोचते-2 दीनू भाई पत्र को गन्तव्य तक पहुँचाने के लिए सीधे म्यूनिसिपल्टी पहुंच गए और प्रधान से उसे पत्र को दिखा कर उसके (दीवान चन्द) सम्बन्ध में पूरी जानकारी ले कर दीवान चन्द घर पहुँच गया तथा चिट्ठी को पहुँचा कर राहत अनुभव करने लगा। दीवान चन्द पुत्र के पत्र को प्राप्त करके जहां हैरान था वहीं वह खुशी से फूला भी नहीं समा रहा था, क्योंकि उसके बेटे को न जाने कितने वर्षो के पश्चात् साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था। दूसरी ओर वह अपनी आदत व व्यवहार के प्रति आत्मगलानी का अनुभव भी कर रहा था।
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