दीपक भारद्वाज
एक गांव से
निकलते हैं जब
नन्हे-नन्हे कदम
किसी सुदूर देश की सरहद के लिए
फिर वापिस, आ पाते हैं बहुत ही कम
क्योंकि वो नहीं देखते
निकलने के लिए ऐसा मुहूर्त
कि जिससे उनके कदमों के निशान
फिर भर सके
उनकी छाप से!
वो नई मिट्टी को
लगा लेते हैं, मस्तक पर
ठीक ऐसे ही जैसे
हमारी जुबां पर बैठ गई हैं
असंख्य भाषाएँ!!
बचपन का वो
गुली-डंडा, कंचे, पिट्ठू
वो खेल-खिलौने
सब दफन हो जाते हैं
उसी मिट्टी में
वो जगह सिर्फ़ जिंदा रहती होगी
तो यादों में!
जहां खूब सजती थी महफिलें
अब वहाँ नहीं दिखता है धुंआ तक भी
अभी तक इंतजार में खड़ी हैं वो
मटकंधी दीवारें
कि कब बिछेगी उन पर
कोई छत!
मधुमक्खियां कब आएंगी अपने छत्ते में
लेकर शहद!
गौरैया कब बनाएगी अपना बसेरा
अभी कोई बिरला ही
जलाता होगा आग भी वहां
ऐसी आग जिसमें नहीं
उठता है कोई धुआं
जलता रहता होगा अंदर ही अंदर
वहां बैठे इंसान के अंदर
यादों का,
और एक उम्मीद का थैला
वो सुनता रहता होगा
पांव की हर एक दबी दबी आवाज,
असंख्य भाषाओं से
मेरी जुबां को परेशानी नहीं है
दिक्कत है तो,
अपनी मां को भूलने की
ज्यादा क्या कहूँ
मैं भी बैठा रहता हूँ
उनके इंतजार में अब
कि कब वो आकर बनाएंगे
मिला-जुला एक आशियाना
ऐसा नहीं कि मैंने कुछ न किया हो
क्योंकि, मैं रहता हूँ
खुद से खोदे हुए एक
पहाड़ की कोख में।
Deepak bhardwaj has written a beautiful poem . Migration has been the most important problem of rural himachal . Only the mountains can feel the the pain of people who have left their homes. Deepak has used beautiful images to send the message across.