रणजोध सिंह

हमारे देश में माता-पिता और गुरु को देवताओं के समकक्ष रखा गया है | इनमें भी माता का दर्जा सबसे महान है क्योंकि हर माँ हर हाल में अपने बच्चों के उथान का दायित्व निभाती ही है | कुछ एक अपवादों को छोड़कर बच्चे भी अपनी माता के प्रति कभी कृतघ्न नहीं होते |

इस कहानी का नायक सूरज भी अपनी मां के प्रति अपार श्रद्धा व सामान रखने वाले व्यक्तियों में से एक है | यद्यपि सूरज की पत्नी व बच्चे भी बुजुर्ग का उतना ही ध्यान रखते थे मगर फिर भी सूरज अपनी माता की छोटी से छोटी चीज का ध्यान रखता था | मधुमय तथा उच्च रक्त-चाप की मरीज़ होने के नाते सभी तरह के भोजन उसकी माताश्री के लिए उपयुक्त नहीं थे, फिर भी कुछ भी खाने से पूर्व वह अवश्य पूछता कि माँ ने खा लिया या नहीं | और यदि कभी नकारात्मक उत्तर मिलता तो खाना उसके हलक से नीचे नहीं उतरता था | कभी-कभी तो बच्चे कह देते कि दादी को पापा बहुत ज्यादा नाजुक समझते हैं | और यह सही भी था | सूरज माँ की परवाह में इतना डूबा था कि उसे कुछ और नहीं दिखता था |

सूरज की मां उन खुशकिस्मत इंसानो में से थीं  जिनकी एक आवाज़ पर तीन चार लोग दौड़े चले आते हैं | सूरज रात होने से पहले यह पक्का कर लेता था कि माँ ने दवाई खा ली है, पीने के लिए ताज़ा पानी उनकी मेज पर रख दिया गया है और सर्दियों में गर्म पानी की बोतल उनके बिस्तर पर रख दी गई है | यद्यपि ज्यादातर ये सारे कार्य उसकी धर्म-पत्नी व बच्चे ही करते थे, मगर सूरज जब तक एक बार उसकी खोज ख़बर नहीं ले लेता, उसे चैन नहीं पड़ता |

सूरज की माताश्री का अधिकांश समय पूजा-पाठ में ही निकलता था | उनसे मिलने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था | कारण, वे अत्यंत मिलनसार थीं | यहाँ तक कि घर में काम करने वाले लोगों, जैसे माली, बर्तन धोने वाली या झाड़ू-पोछा करने वाली बाई के सारे दुख-सुख की माँ को पूरी मालूमात होती थी | वे अत्यंत सफाई पसंद थीं | मसलन बाथरूम जाने से पहले बाल्टियों को साफ करती थीं, अपने पहने हुए कपड़े भी स्वयं ही धोती थीं | पूजा-पाठ के मामले में कोई समझौता नहीं करती थीं | बीमार भी होती तब भी उनका नहाना और पूजा-पाठ सृष्टि नियमों की तरह अटल था |

एक दिन उन्होंने सूरज को बुलाया और बताया कि आज उसकी तबीयत ठीक नहीं है | सूरज ने जैसे ही उनकी नब्ज देखी तो पाया कि उन्हें तेज बुखार था | उनकी सांस तेज चल रही थीं | सूरज जल्दी से अपने कमरे में गया और एक बुखार की गोली ले कर अपनी माँ से बोला, “आप को बुखार है, डॉक्टर को फोन लगाता हूं, तब तक आप ये गोली खा लो|”

माँ ने सूरज का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत स्नेह पूर्वक बोली, “डॉक्टर को रहने दे, गोली खा लेती हूं, पहले मेरी बात ध्यान से सुन, जिस काम के लिए मैंने तुझे बुलाया है | एक फोन लगा दे मेरे लिए | अच्छा, उससे पहले एक और काम कर |” उन्होंने सूरज को एक प्लास्टिक की डिबिया दी और बोली, “इसमें मेरे कंगन, अंगूठी व बालियां हैं | ध्यान से रखना|”

मां की यह बात सुनकर सूरज की आंखों में आंसू आ गए | उसने तुरंत डॉक्टर को फोन लगाना चाहा मगर माँ ने फिर आदेश दिया, “जो फोन मैंने कहा है, वो लगा, मेरी लाडो को लगा, मुझे उससे भी कुछ बात करनी है|”

सूरज ने किसी तरह अपने को संभालते हुए किसी अनहोनी की आशंका में अपनी छोटी बहन के ससुराल में फोन लगाया |

मां एकदम प्रखर स्वर में बोली, “और लाडो कैसी हो? धीरज कैसा है, बच्चे कैसे हैं? और बता तेरा टब्बर-टीर तो ठीक है?” माँ ने एक ही साँस में कई सवाल एक साथ पूछ लिए | जवाब सुनने के लिए वे थोड़ी देर के लिए रुकीं और फिर उच्च स्वर में बोली, “अरी लाडो! यह बात जरा ध्यान से सुन, कुछ दिन पहले मैंने रज्जू की माँ को एक सूट सिलने को दिया था | अरे, वही सूट जो तेरी मामी ने दिया था, हल्के फिरोजी रंग का, याद आया कि नहीं? रज्जू की माँ से कहना, गला ज्यादा डीप ना करें और हो सके तो गले के फ्रंट में चार-पांच मैचिंग बटन भी लगा दे |”

सूरज ने अपने आँसू पोंछे और मुस्कराते हुए माँ के गहने अलमारी में रखने चला गया |

(‘नारी’ एक ऐसा शब्द है, जिसके बिना दुनिया की कल्पना भी असम्भव है | वह कभी माँ, कभी बहन, कभी पत्नी, कभी बेटी और कभी बहु बनकर सदैव हमारे साथ खड़ी है | जीवन की कठिन भूमिकाओं को हँसकर निभाने का मादा रखती है | मगर ये भी सत्य है कि अनेक सुख-दुःख सहते हुए भी वह ये कभी नहीं भूलती कि वह एक नारी है और सुंदर वस्त्र-विन्यास उसका प्रथम अधिकार है और इस आकांक्षा के आगे आयु कोई मायने नहीं रखती दुनिया भर के लोग ‘नारी’ पर निरंतर लिखते आ रहे हैं यानि बहुत कुछ लिखा जा चुका है मगर अब भी बहुत कुछ लिखना शेष है |)

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