मूक, अभिशप्त, भयभीत सी
नन्ही सी जान मैं
लालायित पंख पसारने को
आने को इस जहान में
कितने सपने, कितने अरमान
बसा कर हृदय में
व्यतीत कर दिए दिन, महीने
यूं इंतजार में
परंतु,
मैं अनजान, असहाय
बेखबर इस रहस्य से
लेकर खडग हाथ में
खड़े होंगे यम द्वार पे
जानकर मेरा परिचय
खामोश कर दी जाती हूं
प्रश्न है मेरा इस संसार से
यह कैसी अवहेलना
कैसा समय का प्रहार है
तरसे हैं शब्द ‘माँ’ कहने को
नहीं नसीब होती ‘पिता’ की उंगली चलने को
तरसा है बचपन पालने में झूलने को
तरसे नयन गुड्डे गुड़ियों के खेल को
झिलमिल सी हो गई लोरियों की धुन
रूठ गई, सावन की झड़ीयां
टूट गए सखियों के संग
बुलाते हैं नदियों के तट मुझको
सूने पड़े हैं पनघट भी
याद आए रक्षा के बंधन राखी को
छूट गए तीज- त्योहारों के मौसम भी
रह गई आस मेहंदी भरे हाथों की
निहारती है आंखें अब तो
कब होगी मेरी सहर
होंगे पूरे मेरे सपने भी यां
फिर,
बरसेंगी खुशियां
चमकेगा सूरज
चहकेगी मधुर वाणी
महकेंगे उपवन
गूंजेगी मधुर झंकार वीणा कि
काश!
समझ मेरी वेदना एक बार…
अगर ‘वो’ चिराह है
‘मैं’ भी तो उजियारा हूं
मुझसे ही तो सृष्टि है
आ जाए समझ में एक बार…
तभी तो,
सही अर्थों में, हो जाए
मेरी सहर साकार ।