डॉo कमल केo प्यासा
प्रेषक : डॉ. कमल के . प्यासा

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से, देश के साथ ही साथ सभी पहाड़ी रियासतों में भी (अंग्रेजों द्वारा स्थापित) प्रशासन व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक असन्तोष फैल चुका थाऔर उन्हों ने हर क्षेत्र मे हस्ताक्षेप व पक्षपातपूर्ण व व्यवहार शुरू कर दिया था । जिससे आम जनता में रोष फैलना स्वभाविक ही था।फिर इसी से लोगों में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना जागृत हो उठी । दूसरी ओर शासक वर्ग भी अंग्रेजों की गुलामी व तानाशाही को सहन नहीं कर पा रहा था ।

ऐसा ही व्यवहार देश की सेना के साथ भी किया जा रहा था जिसमें उन्हें ईसाई बनने के लिए प्रेरित किया जाता था, फिर भला कैसे सेना में विद्रोह न होता ? जनवरी 1857 को जिस समय सेना में एनफील्ड राइफल का चलन शुरू हुआ (जिसमें गाय व सूअर की चर्बी वाले कारतूस का ) जिसको लेकर 28 मार्च 1857 को बैरक पुर के एक सैनिक, मंगल पांडेय ने कारतूसों को प्रयोग करने के लिए आपत्ति जताई तो उसे फांसी की सजा सुना दी गई और इसी से देश भर में भयानक विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी ।

इसके साथ ही साथ पहाड़ी क्षेत्र की छोटी छोटी रियासतों के राजाओं,सैनिकों व आम जनता द्वारा भी अंग्रेजी साम्राज्य का खुल कर विरोध किया गया तथा सब ने स्वधीनता संग्राम की इस लड़ाई में बढ़ चढ़ कर भाग लिया । इस घटना के बाद ,अंग्रेजों को यहां की जनता की देश भक्ति का आभास हो गया । बदले में उन्होंने कड़ी निगरानी के साथ ही साथ अपना व्यवहार भी भारतीयों के प्रति कठोर कर दिया।क्रांतिकारियों पर भी कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए । अब क्रांतिकारी गतिविधियां देश के साथ ही साथ हिमाचल की पहाड़ी रियासतों में भी शुरू हो गई थीं ।

इन रियासतों के क्रान्तिकारियों के आपसी तालमेल से ही क्रांति की गतिविधियों में दिन प्रतिदिन तेजी भी आनी शुरू हो गई और आपसी संबंधों के साथ गुप्त सन्देशों का आदान प्रदान,घातक बमों का निर्माण, सरकारी खजानों की लूट पाट के तौर तरीके भी एक से दूसरे स्थान के क्रांतिकारियों तक आसानी से पहुंचने लगे थे । मंडी के क्रांतिकारियों की सूची में स्वामी कृष्णा नंद, भाई हिरदा राम, रानी खैर गढ़ी, पंडित गौरी प्रसाद, किशन चंद फतुरिया, तेज सिंह निधड़क व स्वामी पूर्णा नंद आदि नामों के साथ सैंकड़ो नाम गिनाए जा सकते हैं, लेकिन आज जिस क्रांतिकारी की मैं चर्चा करने   जा रहा हूँ वे हैं, स्वतन्त्रा सैनानी स्वामी कृष्णानंद जी ।

स्वामी कृष्णा नंद का जन्म मंडी शहर के पोस्ट आफिस रोड की खनक गली  में स्थित श्री चुहरु राम के घर 6 मार्च 1891 में हुआ था । इस होनहार बालक का बचपन का नाम हरदेव था । हरदेव ने दसवीं की परीक्षा होशियारपुर से अच्छे अंकों पास करने के बाद, शीघ्र ही दयानंद एंग्लो महाविद्यालय लाहौर में दाखिला ले लिया था । लेकिन एफ०ए० करने के पश्चात उन्होने कॉलेज छोड़ दिया और कांगड़ा की गुरुदत्त डी० ए० वी० पाठशाला में अध्यापक का कार्य करने लगे ।

लेकिन पुनर्जागरण के प्रभाव से उनकी रुचि अध्यात्म की ओर होने लगी (स्वामी दयानंद जी के सत्य प्रकाश के अध्ययन से) तथा क्रान्तिकारियों के कार्यों व भाषणों  से प्रभावित हो कर, देश हित के लिए क्रांतिकारी कार्यों के बारे में चिंतन करने लगे । बेटे की बढ़ती खामोशी को देखते हुवे, माँ बाप ने शीघ्र  ही हरदेव की शादी भी करवा दी ताकि उसका मन लग जाये । इसी मध्य हरदेव  के स्वामी सत्यदेव व निहाल सिंह के सम्पर्क में आने से पता चला कि अमेरिका में तो व्यक्ति अपनी पढ़ाई का सारा खर्च खुद ही काम करके निकाल सकता है । और फिर हरदेव अमेरिका जाने का विचार करने लगा तथा जाने के लिए उसने कुछ पैसे भी इकक्ठे कर लिए । फिर जून 1913 को 20 साल की उम्र में एक दिन उसने पढ़ाई व पैसा कमाने के लिए वह अमेरिका जाने वाले जहाज में बैठ गया ।

उसी जहाज में मंडी के लाला कांशी राम व एक अन्य पंजाब का व्यक्ति भी द्वितीय श्रेणी में अमेरिका के लिए सफर कर रहे थे,जब कि हरदेव अपने एक अन्य साथी (हज़ारा सिंह ) के साथ डैक पर था । प्रथम सितम्बर 1913 को सैनफ्रांसिस्को पहुँचने पर द्वितीय श्रेणी के यात्री तो उतर गए लेकिन इन दोनों डैक वालों को वहां नहीं उतरने दिया, चिकित्सक ने इन्हें अनफिट घोषित कर दिया । हरदेव को बड़ी निराशा हुई, क्योंकि उसके सारे सपने बिखर गये थे और सारी भूख प्यास भी मिट गई थी वह आत्महत्या करने को सोचने लगा था।

जहाज अब हांगकांग की ओर बढ़ रहा था, होनोलूलो पहुँचने पर वह जहाज से समुद्र में कूदने ही जा रहा था कि जहाज के कर्मचारियों ने देख लिया और उसे समुद्र में डूबने से बचा लिया । इसके पश्चात जहाज के जापान पहुंचने पर हरदेव योकाहामा में उतर गया,क्योंकि उधर अमेरिका की तरह सख्ती नहीं थी।और फिर वह पढाई व काम की तलाश में टोकियो, नागासाकी व कोबे जैसे शहरों में कई जगह घूमा लेकिन वहां भी काम के साथ पढाई (दोनों एक साथ) नहीं मिल सके । इसके पश्चात हरदेव आगे बढ़ते बढ़ते शांघाई चीन पहुंच गया ।

शांघाई में पंजाब के सिख भारी संख्या में रहते थे, जो कि पुलिस,ब्रिटिश सेना व रेलवे में काम करते थे । हरदेव ने भी वहां एक गुरुद्वारे में ठहर कर रेल विभाग की नॉकरी में लग गया । गुरुद्वारे में रहते उसे वहां गद्दर पार्टी से सम्बंधित साहित्य पढ़ने को मिलने लगा, जो कि अमेरिका से लाला हरदयाल द्वारा स्थापित गद्दर पार्टी से आता था । गद्दर पार्टी का साहित्य हरदेव पर पूरी तरह से प्रभावी हो गया और अब तो उसकी मुलाकाते गद्दर पार्टी के क्रांतिकारियों से भी होने लगी थीं । इसी बीच एक दिन उसकी मुलाकात क्रांतिकरी नेता डॉ० मथुरा सिंह से हो गयी और फिर दोनों एक किराये के कमरे में रह कर गद्दर पार्टी का प्रचार प्रसार करने लगे । डॉ० मथुरा सिंह के साथ से हरदेव हर प्रकार की चिंता से मुक्त हो चुका था तथा एक क्रांतिकारी के रूप में भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने की लड़ाई में पूरी तरह से जुड़ गया था । अब गद्दर पार्टी का साहित्य भारत के साथ ही साथ दूसरे देशों को भी भेजा जाने लगा था ,जहां जहां  भारतीय रह रहे थे ।

फिर दोनों ने अंग्रेजों की सेना में विद्रोह व असंतोष फैलाने तथा सिख व डोगरा रेजिमेंट के साथ ही साथ सेवानिवृत सैनिकों को अपने आंदोलन में शामिल करने की योजनाएं भी बनाने लगे थे । जिसमें शांघाई के बेरोजगार सिखों को ब्रिटिश कॉउंसिल से रोजगार की मांग के लिए या फिर वापिस भारत भेजने की मांग के लिए, उन्हें जलूस निकलने के लिए प्रेरित करने लगे । जब जलूस निकला तो उसमें शामिल लोगों को पुलिस द्वारा ग्रिफ्तार कर लिया गया।

पुलिस इन्हें भी खोज रही थी, फलस्वरूप मार्च 1914 में दोनों कई अन्य भारतीयों के साथ शंघाई छोड़ेंगे को मजबूर हो गएऔर शंघाई से निकल पड़े ,रास्ते में सिंगापुर,सायगान व पिनाग आदि के लोगों से भी क्रांतिकारी गतिविधियों संबंधित जानकारियां व भावी योजनाओं के बारे में जानकारियां लेते रहे।हांग कांग में बाबा गुरदुत्त सिंह की मदद से कामागाटा मारु को भारतीयों को कनाडा पहुंचने के लिए आरक्षित कर लिया गया । अप्रैल 1914 में हरदेव व मथुरा सिंह दोनों अपने साथियों सहित मद्रास पहुंच गए।फिर छिप कर  पहाड़ी क्षेत्रों में किस तरह दुश्मन को पिछड़ा जा सकता है, की जानकारी के लिए दोनों कश्मीर पहुंच गए ।

बाद में जुलाई 1914 को हरदेव बम्बई पहुंच कर वहां लिपिक की नॉकरी करने लगा और कुछ समय पश्चात मंडी अपने घर आ गया । जब अंग्रेजों को  क्रान्तिकारियों की गद्दर पार्टी की योजनाओं की जानकारी हुई तो पुलिस द्वारा कई स्थानों पर तलाशी अभियान शुरू कर दिया गया और फिर 7 मार्च,1915 को मंडी में हरदेव के पास पुलिस पहुंच गई तथा उसके घर की तलाशी लेने लगी । लेकिन हरदेव ने तो बड़ी होशियारी से पहले ही गद्दर पार्टी का सारा साहित्य पड़ौस में छिपा दिया था । फलस्वरूप पुलिस को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। लेकिन पुलिस ने अपनी आन के लिए भाई परमानंद को पकड़ लिया जो कि अमेरिका से आया था और उसे गद्दर पार्टी का मुख्य कर्ता धर्ता बतया गया ।

उसके साथ ही साथ डॉ० मथुरा सिंह व भाई हिरदा राम को भी पकड़ लिया गया, क्योंकि भाई मथुरा सिंह ने हरदेव को अपना एक गुप्त संदेश अर्थात “19 फरवरी विवाह का आमंत्रण संदेश भेजा था । हरदेव को भी जानकारी मिल गई थी कि पुलिस उसके पीछे लगी हैऔर कभी भी उसको ग्रिफ्तार कर सकती है । क्योंकि उसके कई एक साथियों को भी पकड़ा जा चुका था कईयों को फांसी की सजा  भी सुनाई गई । भाई हिरदा राम को ग्रिफ्तार करके मौत की सजा सुनाई गई, जो कि बाद में उम्र कैद में बदल दी गई थी । हरदेव को  भगौड़ा घोषित किया जा चुका था ।

अपने ऊपर आई मुसीबतों को देख कर हरदेव ने सन्यास का रास्ता अपनाने को मन बना कर बद्रीनाथ के स्वामी भूमा नंद जी के पास पहुंच गए।स्वामी जी ने हरदेव के संन्यास आश्रम में प्रवेश व मार्ग दर्शन के लिए उसको गीता की पुस्तक दे कर ,उसका नामकरण हरदेव के स्थान पर कृष्णा नंद कर दिया और फिर भगवां वस्त्र धारण करके स्वामी कृष्णानंद के रूप में हरदेव पवित्र तीर्थ उत्तर काशी की ओर चल दिये। हरदेव का स्वामी कृष्णानंद के रूप में दूसरा जीवन था । इस प्रकार स्वामी कृष्णानंद जी  हरिद्वार से होते हुए अहमदाबाद पहुँच गए । एक दिन स्वामी जी ने उर्दू के समाचार पत्र “प्रकाश” में पढा कि सिंध के खीरपुरा नाथन साह के, किसी परिवार के आर्य समाज में शामिल होने पर उन्हें  बरादरी  से बाहर कर दिया है ।

बात वास्तव में ही हैरानी की थी जिसके लिए स्वामी जी, सिंध के लोगों को जागृत करने के लिए हैदराबाद सिंध पहुंच गए । सिंध में स्वामी जी के शिक्षात्मक भाषणों ने वहां के लोगों को मोह लिया । थार प्लारकार क्षेत्र के लोग तो स्वामी जी के इतने करीब हो गए कि वे स्वामी जी को अपने घर का सदस्य ही समझने लगे थे। क्योंकि स्वामी जी ने भी तो उस सारे क्षेत्र को (जो कि दिन की तपती रेत में गर्म हवा व रात को बर्फ जैसी ठंडी हवाएं लिए रहता था) पैदल या ऊँट की स्वारी द्वारा पहुंच कर,वहां पर पुनर्जागरण व निर्माण के कार्य करके राष्ट्र जनचेतना का संदेश दिया था ।

स्वामी जी ने वहां स्वामी दयानंद जी के दर्शन व शिक्षाओं का प्रचार प्रसार अक्टूबर 1915 से लेकर आगे चार पांच वर्ष तक जारी रखा था । 1919 ईस्वी को जालियांवाला बाग हत्याकांड की पीड़ा को न सहन करते हुए,स्वामी जी ने मीरपुर खास में एक जनसभा में हत्याकांड की भारी भर्त्सना की और उसके साथ ही वे कांग्रेस में शामिल हो गए । फिर 1921 ईस्वी में कराची में अपने 100 स्वयंसेवकों के साथ जिस में हिन्दू, मुसलमान दोनों ही शामिल थे, ने मिलकर शराब की दुकानों की पिकेटिंग की, पकड़े जाने पर स्वामी जी को एक वर्ष के लिए जेल रहना पड़ा ।

जिसमें बाद में कराची से उन्हें गुजरात की सामरमती जेल में बदल दिया गया था । जुलाई 1922 की रिहाई के पश्चात सिंतबर  में फिर कराची में राजद्रोही भाषणों के करण स्वामी जी को एक वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया । फिर नाभा में आचार्य एम०एन० गिडवानी व पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ सिंतबर 1923 में सज़ा काटने के बाद 1925 में स्वामी जी को रेल कर्मचारियों को उकसाने वाले भाषणों के कारण फिर सज़ा सुनाई गई । असल में स्वामी जी ने रेल कर्मचारियों के लिए पैसों व भोजन की व्यवस्था की थी,जिस पर बाद में दो मास के पश्चात हड़ताल हट जाने पर उन्हें मुक्त कर दिया गया था ।

23 अक्टूबर 1928 को साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर के जलूस में हुवे लाठीचार्ज में जब लाला लाजपत राय जी के घायल होने से मृत्यु हो गईं तो उसके विरोध में कराची में भारी जलूस निकला गया, जो कि पूरी तरह से स्वामी जी द्वारा नियंत्रित था, और तभी से स्वामी जी अंग्रेजों की नज़र में  खटकने लगे थे । 26 जनवरी,1930 को जब महात्मा गांधी द्वारा नमक सत्यग्रह आंदोलन किया गया तो स्वामी जी ने , जिनके पास कराची सत्यग्रह आश्रम का कार्यभार था ने भी शपथ ले कर सभी कार्यकर्ताओं के साथ 13 अप्रैल 1930 को नैटीक जैटी से समुद्र से पानी ला कर सेठ नारायण दास आनंद, दूसरे नेताओं व कार्यकर्ताओं द्वारा नमक तैयार किया गया ।

लेकिन अगले ही दिन आश्रम में छापा मार कर स्वामी जी के साथ ही साथ डॉ० चोहित राम गिडवानी, नारायण दास आनंद, बिचर, मनी लाल व्यास, ताराचंद लालवानी व विष्णुशर्मा को गिरफ्तार कर लिया गया था । जब लोगों ने ग्रिफ्तारियों का विरोध किया पुलिस ने गोली चला दी, जिससे मेघ राज लूला व दत्त राम कोयले मारे गए । स्वामी जी को डेढ़ वर्ष की सज़ा हुई, दूसरे नेताओं को भी सज़ा सुनाई गई जिससे जेल भी भर गई और कोई स्थान खाली नहीं रहा । बाद में मार्च 1931 को गांधी इरविन पैक्ट के अंतर्गत स्वामी जी के साथ ही साथ सब को छोड़ दिया गया ।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक सत्र कराची में सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में किया गया ,जिसमें प्रबंधन कमेटी के सचिव स्वामी जी ही थे । इसी सत्र का फोटो जब हिंदी समाचार पत्रों में छपा और स्वामी जी की माता ने देखा तो उन्होंने अपने बेटे हरदेव को पहचान लिया और सीधी अपने दूसरे बेटे के साथ कराची पहुंच गईं तथा बेटे को मंडी चलने को कहने लगीं ।

स्वामी जी ने माता से कहा कि जब तक देश स्वतंत्र नहीं हो जाता तब तक मैं नहीं जा सकता, तथा माता को जाते हुए ये भी कह दिया कि मेरी पूर्व ज़िन्दगी का राज़ किसी से भी न बताया जाए। लेकिन इसके शीघ्र  बाद ही में जब हंस राज व विष्णु शर्मा स्वामी जी से मील तो राज़ छिपा न रह सका फिर क्या था स्वामी जी व शेष सभी साथियों  को शीघ्र ही ग्रिफ्तार कर लिया गया । 1932 में ही दूसरी गोल मेज बैठक की असफलता के पश्चात जब कांग्रेस के कई नेताओं को ग्रिफ्तार किया गया तो उस समय भी स्वामी जी को अढ़ाई साल की सज़ा सुनाई गई । 1934 में जब क्योटा में भीषण भूचाल आया तो स्वामी जी के साथ ही साथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने बड़े जोर शोर से राहत कार्य किया उस समय भी स्वामी जी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे ।

सितंबर 1939 को जब अंग्रेजों व जर्मन की मध्य द्वितीय युद्ध शुरू हुआ तो भरतीयों ने अंग्रेजों की ओर से युद्ध में भाग लेने से इनकार कर दियाऔर इसके लिए भी स्वामी जी व उनके साथियों को ग्रिफ्तार कर लिया गया और बाद में 6 मास बाद छोड़ दिया । 8 व 9 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सम्मेलन सत्र जो कि बम्बई में हुआ था, उसमें स्वामी जी को सिंध से सदस्य के रूप सभी  भारतीय नेताओं की उपास्थिती में चयनित किया गया था ।

9 अगस्त को जब भारत छोड़ो आंदोलन देश भर में चला और अंग्रेजों को भारत से चले जाने को कहा गया तो ब्रिटिश सरकार ने भरतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा कर महात्मा गांधी तथा  कई अन्य नेताओं के साथ ग्रिफ्तार कर लिया गया।इस तरह जगह जगह से नेताओं की गिरफ्तारी के कारण जब कोई मार्गदर्शक नहीं रह तो गांधी जी ने हर भारतीय को देश के हित के लिए, नेता के रूप में आगे आने को कहा और देश व मातृ भूमि की स्वतंत्रता की लिए लड़ने और मरने को कह दिया । उस समय अंग्रेजों द्वारा कई  तरह के अत्यचार किये जा रहे थे । कई जगह तो युवक युवतियों को भी अंग्रेजों की गोलियों का शिकार होना पड़ा था।स्वामी जी भी जब कराची रेलवे स्टेशन पर पहुंचे तो उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया था ।

देश की स्वतंत्रता के प्रति सब में उत्साह व जोश था।इसी मध्य सक्कर के एक नोजवान हिम्मू कलानी को मिल्ट्री ट्रैन की पटड़ी को उखाड़ने के अभियोग में पकड़ लिया था और फिर उसे फांसी पर लटका दिया गया । इतना ही नहीं कुछ एक लड़कियों को भी राष्ट्रीय झंडे को फाड़ने के दोष में गोली से उड़ा दिया गया था । 1945 में जब जर्मन व जापान हार गए तो धीरे धीरे कैदियों को छोड़ा जाने लगा । स्वामी जी की रिहाई जून 1945 को हो गई।

1946 में जब देश में आम चुनाव हुए तो स्वामी जी को सिंध से असैम्बली के लिए कांग्रेस की ओर से खड़ा किया गया तथा स्वामी जी थार पारकर से चुन लिए गए । अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने पर स्वामी जी थार व पार कर के कुछ लोगों के साथ दिल्ली पहुंच गए और वहां सचिव श्री एम०पी० मैनन व महात्मा गांधी जी से मुलाकात करके, थार व पारकर जो कि हिन्दू बाहुल क्षेत्र थे, उन्हें भारत में शामिल करने के लिए कहा, लेकिन उस समय तो सब कुछ हो चुका था इस लिए कुछ भी सुधार नहीं हो पाया।विभाजन के बाद सिंध में हिन्दू और सिखों पर हमले शुरू हो गए, लूट पाट शुरू हो गई और कई हिन्दू सिख अपनी जानें गवां बैठे ।

अंत में एक कमेटी का गठन इंडियन हाई कमिश्नर के सहयोग से किया गया ताकि पाकिस्तान से हिन्दू सिखों को निकला जा सके।फिर स्वामी नारायण मंदिर  में, स्वामी जी की अगुवाई में एक शिविर लगवाया गया, जिसमें सिंध, बलोचिस्तान व बहावलपुर के हिंदुओं व  सिखों को आश्रय दिया गया । इस प्रकार स्वामी जी  स्वतंत्रता के बाद भी लगभग दो वर्ष तक सिंध कराची में ही रहे व पूरी तरह से शिविर में सहयोग देते  रहे । उनका ये साथ, 6 लाख हिंदुओं को तब तक मिलता रहा जब तक कि वे सभी भारत नहीं पहुंच पाए ।

1950 में स्वामी जी पकिस्तान से बम्बई आ गए,यहां आने पर सबसे पहले अपने पुराने साथियों,क्रान्तिकाररियों व शिविर में मिलने शरणार्थियों के पास पहुँचे, जो कि ठीक ठाक बम्बई पहुंच चुके थे । बाद में पूरे 35 वर्ष बाद दिल्ली होते हुए अपने घर मंडी पहुंच गए । जिस समय कि उनके पिता और पत्नी नहीं रही थी । 1952  में स्वामी जी हिमाचल असेम्बली में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीत कर आये । 1957 में दूसरी बार टेरिटोरियल कौंसिल के लिये चुने गए । 1962 में किन्हीं कारणों से चुनाव नहीं जीत पाए लेकिन फिर भी मंडी म्युनिसिपल कमेटी के प्रेजिडेंट 1968 तक बने रहे ।

चीन व पाकिस्तान की लड़ाई के समय स्वामी जी ने सभी दलों के सहयोग से राष्ट्रीय रक्षा समिति का गठन करके राष्ट्र सेवा को बरकरार रखा इतनी सारी क्रांतिकारी गतिविधियों व देश सेवा की खूबियों के साथ ही साथ स्वामी जी ने मंडी में अर्बन को ऑपरेटिव बैंक, मंडी आर्य समाज व खत्री सभा मंडी, आदि का गठन करके अपने निष्काम व निस्वार्थ व्यक्तित्व होने का परिचय दिया है और उन्हीं के प्रयासों के कारण आज समाज का हर वर्ग पूरा पूरा लाभ उठा रहा है । नवंबर 1968 को जब स्वामी जी अपने मित्रों साथियों से मिलने बम्बई पहुंचे तो सिंधी समाज ने उन्हें आंखों पे उठा लिया था और स्वामी जी द्वारा किये गए कार्यों को दोहराते हुए व गर्व अनुभव करते  हुवे स्वामी जी ज़िंदाबाद, स्वामी जी ज़िंदाबाद के नारे लगाए जा रहे थे ।

सिंध के लोगों के लिए आज भी स्वामी जी  एक जननायक थे और जननायक हैं । यह बात सत्य भी है कि एक दूर के व्यक्ति का तीन बार सिंध की असेम्बली के लिए चुना जाना ! सिंध के लोगों के लिए बहुत बड़ी मिसाल थी । स्वामी जी ने भी तो अपना सारा जीवन सिंधी बरादरी के लिए समर्पित कर दिया था । तभी तो राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने भी अगस्त 1921 के यंग इंडिया समाचार पत्र के अंकों में बहुत कुछ स्वामी जी के सम्बंध लिख कर उनका वास्तविक रूप उजागर किया था । आज स्वामी जी हमारी बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी स्वस्छ छवि, ऊंचा लम्बा हृष्ठ पुष्ठ खद्दर के कुर्ते धोती बास्कट व सिर पर साफा धारण किया शरीर, आज भी मुझे उस छोटी सी मुलाकात से उनके व्यक्तित्व की याद को ताजा कर देती है ! 16 सिंतबर,1974 को स्वामी जी लम्बी बीमारी के कारण इस संसार को छोड़ कर दूर चले गए । उस महान व्यक्तित्व व पूण्य आत्मा को मेरा शत शत नमन ।

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