ज़िंदगी – (मंडयाली नक्की कहाणी)

रणजोध सिंह
शिमला जैसे सर्द शहर में, सर्दी की परवाह किये बगैर विनय अपने कमरे में बठकर कंप्यूटर के साथ माथा-पच्ची कर रहा था जबकि उसकी पत्नी और बच्चे बाहर खिली हुई धूप में दोपहर के भोजन का आनंद ले रहे थे| उनके पास ही उसकी माता जी एक आराम कुर्सी पर बैठकर गीता पाठ कर रही थीं |
यद्यापि पत्नी ने पति के लिए भी खाने की थाली सजा दी थी, पर वर्क-फ्रॉम-होम के चलते पति अभी तक भोजन की थाली को हाथ नहीं लगा पाया था | पति ने डाइनिंग टेबल से थाली उठाई और कमरे से बाहर निकल कर बगीचे में रखे हुए एक बेंच पर बैठकर खाना खाने को उद्यत हुआ ताकि भोजन के बहाने कुछ देर के लिए गुनगुनी धूप का आनद ले सके |
पाठ करती हुई माँ ने उसे तिरछी नजरों से देखा, वह सहम गया| उसे मालूम था कि अब वे क्या कहेगीं, “पहले बेंच को अच्छी तरह से साफ कर तब खाना खाने बैठ, अगर कुत्ता भी कहीं बैठता है तो पहले पूंछ मारकर उस जगह को साफ करता है, अरे! तुम तो इंसान हो |”
खैर विनय अपनी माताश्री का यह ब्रह्म-वाक्य बचपन से सुनता आ रहा था | इससे पहले कि माँ जी, उसकी पत्नी व बच्चों के सामने उसे असुविधाजनक परिस्तिथि में डालती, वह डस्टर लेकर बैंच साफ करने लगा |
माँ को तसल्ली हुई मगर पत्नी तुरंत बोली, “आप भी क्या करते हो, इस समय बैंच को साफ करोगे तो मिट्टी उड़ेगी, देखते नहीं हम खाना खा रहे हैं |”
पति ने तुरंत डस्टर वहीँ छोड़ दिया और सर्दियों की गुनगुनी धूप में खाना खाने का इरादा भी | वह चुपचाप कमरे में आ गया और डाइनिंग टेबल पर खाने लगा, आखिर घर का संतुलन बनाए रखना जरूरी था |
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