रणजोध सिंह
सिद्धार्थ जी, यूं तो सरकारी स्कूल में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक थे, मगर फिर भी गांव के लोग उन्हें मास्टर जी तथा बच्चे गुरु जी कहकर ही पुकारा करते थे | सिद्धार्थ जी के पढ़ाने का तरीका बड़ा ही प्रैक्टिकल व वैज्ञानिक था | वे कब किताबों के पन्नों से निकलकर विद्यार्थियों की रूह में उतर जाते थे बच्चों को पता ही नहीं चलता था |
एक दिन वे बच्चों को पढ़ा रहे थे ‘पॉलिटिक्स ऑफ स्केर्सिटी’ यानी अभाव की राजनीति | मगर पढ़ाते-पढ़ाते वे अचानक रुक गए और कुछ सोच कर बच्चों से बोले, “इस विषय पर मैं बाद में चर्चा करूंगा अभी कुछ और बात करते हैं |”
कुछ दिन बाद उनके स्कूल में वार्षिक खेलकूद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया सभी बच्चों ने खेल-दिवस में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया | साल भर किताबों से माथा-पच्ची करते यदि किसी विद्यार्थी को एक दिन के लिए किताबों के बोझ से मुक्ति मिल जाये तो वह कितना प्रसन्न हो जाता है, कुछ ऐसी ही मानसिक-स्थिति आज इन बच्चों की थी | इनाम बांटने के बाद न केवल खिलाड़ियों के लिए अपितु समस्त बच्चों के लिए समुचित भोजन की व्यवस्था की गई थी | अत: सब ने भर पेट खाया और फिर इत्मीनान से बस का इंतजार करने लगे |
वैसे तो बच्चों की छुट्टी के समय दो तीन बसें एक-आध घंटे के अंतराल में स्कूल के पास से गुजरती थीं मगर आज खेल-दिवस के कारण बच्चे बस के लिए लेट हो चुके थे, इसलिए सभी विद्यार्थियों को अब या तो अंतिम बस को पकड़ना था या फिर पांच-सात किलोमीटर पैदल चलना था | इस बस में केवल पचास सवारियों के बैठने का प्रावधान था, जबकि अस्सी-नब्बे बच्चों को उस बस से जाना था | अतः सीट लेने के लिए उनमे धक्कम-धक्का होने लगी | एक-दो विद्यार्थियों को तो चोट भी आ गई | अध्यापक लोग बिना देर किए वहां पहुंचे और किसी तरह बच्चों पर नियंत्रण किया | छोटे व शारीरक रूप से कमजोर बच्चों को बस से भेज दिया गया और शेष विद्यार्थियों को युवा अध्यापकों की देखरेख में उनके घरों तक पैदल भेजा गया ताकि कोई अनहोनी न हो |
अगले रोज सिद्धार्थ जी ने कक्षा में आते ही बच्चों का गर्म-जोशी के साथ स्वागत किया और फिर चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बोले, “प्यारे बच्चों, कल जब पुरूस्कार वितरण के बाद आप लोगों ने भोजन ग्रहण किया तो आप लोगों ने जिस एकता, सभ्यता और शालीनता का परिचय दिया, इसके लिए आप सबको बहुत बहुत बधाई |” पूरी कक्षा तालियों से गूंज उठी |
वे कुछ देर रूके और फिर कहने लगे, “मैंने देखा कि खाना खाते समय, आप में से प्रत्येक बच्चा कह रहा था पहले तुम पहले तुम | इतना ही नहीं तुम लोग प्लेटें उठा-उठा कर एक दूसरे को दे रहे थे ताकि दूसरे लोग पहले खा ले, जानते हो ऐसा क्यों हुआ क्योंकि हमें पता था कि खाने की कोई कमी नहीं है सब को खाना मिल ही जाएगा इसलिए हमारा व्यवहार उस परिस्थिति के मुताबिक शांत सभ्य व शिष्टापूर्ण था | राजनीति की भाषा में ऐसी स्तिथि को कहते है ‘प्रचुरता की राजनीति’ मगर जैसे ही पता चला कि घर जाने के लिए केवल अंतिम बस का ही विकल्प बचा है और बस में सीटें कम हैं और जाने वाले लोग ज्यादा हैं, हमारा व्यवहार एक दम बदल गया | हम भूल गए कि हम सभ्य व शालीन हैं….हम हर हाल में अपने लिए सीट प्राप्त करना चाहते थे अत: सारी सभ्यता, शिष्टाचार और शालीनता को दरकिनार कर, केवल बस में सीट लेने के लिए यत्न करने लगे, यहाँ तक कि धक्कम-धक्का करने पर उतारू हो गए | क्या ये अच्छी बात हुई?”
बच्चों को काटो तो खून नहीँ, उन्हें अब तक अपनी गलती का अहसास हो चुका था अत: उनके सामने गर्दन झुका कर चुपचाप बैठने के सिवा कोई चारा नहीं था |
सिद्धार्थ सर यहाँ एक पल के लिए रुके और फिर मुस्कुराते हुए बोले, “कोई बात नहीं, इसमें तुम्हारी कोई खास गलती नहीं है, तुम भी अभाव की राजनीति का शिकार हो गए थे | कल जो कुछ बस में हुआ, इसी को कहते हैं अभाव की राजनीति | मेरे विचार से अब तो आप लोगों को अभाव की राजनीति का अर्थ पता चल गया होगा|”
सारी कक्षा एक बार फिर तालियां के शोर से गूंज उठी | बस पर चढ़ने और सीट लेने के चक्कर में एक–दुजे को धक्का मारने का दृश्य याद करके सबके मुंह से हंसी के फव्वारे छूटने लगे, और इधर सिद्धार्थ सर ने बातों बातों में बच्चों को ‘प्रचुरता की राजनीति’ और ‘अभाव की राजनीति’ का अर्थ समझा दिया जो उन्हें ताउम्र नहीं भूलने वाला था |
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